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हिंदी-साहित्य का इतिहास

गुरुपद पंकज पावन रेनू। कहा कलपतरु का सुरधेनू॥
गुरुपद-रज अज इरिहर धामा। त्रिभुवन-विभव, विस्व विश्रामा॥
तब लगि जग जड़ जीव भुलाना। परम तत्व गुरु जिथ नहिं जाना
श्रीगुरु पंकज पाँव पसाऊ। स्रवत सुधामय तीरथराऊ॥
सुमिरत होत हृदय असनाना। मिटत मोहमय मन-मल नाना॥

(२४) भगवंतराय खीची––ये असोथर (जिला फतहपुर) के एक बड़े गुणग्राही राजा थे जिनके यहाँ बराबर अच्छे कवियों का सत्कार होता रहता था। शिवसिंह सरोज में लिखा है कि इन्होंने सातों कांड रामायण बड़े सुंदर कवित्तों में बनाई है। यह रामायण तो इनकी नहीं मिलती पर हनुमानजी की प्रशंसा के ५० कवित्त इनके अवश्य पाए गए हैं जो संभव है रामायण के ही अंश हो। खोज में जो इनकी "हनुमत् पचीसी" मिली है उसमें निर्माणकाल १८१७ दिया है। इनकी कविता बड़ी ही उत्साहपूर्ण और ओजस्विनी है। एक कवित्त देखिए––

विदित विसाल ढाल भालु-कपि-जाल की है,
ओट सुरपाल की है तेज के तुमार की।
जाहीं सों चपेटि कै गिराए गिरि गढ, जासों,
कठिन कपाट तोरे, लंकिनी सों मार की॥
भनै भगवंत जासों लागि भेंटे प्रभु,
जाके त्रास लखन को छुभिता खुमार की।
ओढ़े ब्रह्म अस्त्र की अवाती महाताती, वंदौं,
युद्ध-मद-माती छाती पवन-कुमार की॥

(२५) सूदन––ये मथुरा के रहनेवाले माथुर चौबे थे। इनके पिता का नाम बसंत था। सूदन भरतपुर के महाराज बदनसिंह के पुत्र सुजानसिंह उपनाम सूरजमल के यहाँ रहते थे। उन्हीं के पराक्रमपूर्ण चरित्र का वर्णन इन्होंने "सुजानचरित्र" नामक प्रबंधकाव्य में किया है। मोगल-सम्राज्य के गिरे दिनों में भरतपुर के जाट राजाओं का कितना प्रभाव बढ़ा था यह इतिहास में प्रसिद्ध है। उन्होंने शाही महलों और खजानों को कई बार लूटा था। पानीपत की अंतिम