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हिंदी-साहित्य का इतिहास

डोलती डरानी खतरानी बतरानी बेबे,
कुडिंए न बेखी अणी भी गुरून पावाँ हाँ।
कित्थे जला पेऊँ, कित्थे उज्जले भिड़ाऊँ असी,
तुसी की लै गीवा असी जिंदगी बचावा हाँ॥
भट्टररा साहि हुआ चंदला वजीर बेखो,
एहा हाल कीता, वाह गुरूनूँ मनावा हाँ।
जावाँ कित्थे जावाँ अम्मा बाबै केही पावाँजली,
एही गल्ल अक्खैं लक्खौं लक्खौं गली जावाँ हाँ॥

(२६) हरनारायण––इन्होंने 'माधवानल कामकंदला' और 'बैताल पच्चीसी' नामक दो कथात्मक काव्य लिखे हैं। 'माधवानल कामकंदला' का रचनाकाल स॰ १८१२ है। इनकी कविता अनुप्रास आदि से अलंकृत है। एक कवित्त दिया जाता है––

सोहै मुंड चंद सों, त्रिपुंड सों विराजै भाल,
तुंड राजै रदन उदंड के मिलने तें।
पाप-रूप-पानिए विघन-जल जीवन के
कुंड सोखि सृजन बचावैं अखिलन तें॥
ऐसे गिरिनंदिनो के नंदन को ध्यान ही में
कीबे छाडि सकल अपानहि दिलन तें।
भुगुति मुकति ताके तुंड तें निकसि तापै,
कुंढ बांधि कढ़ती भुसुंड के विलन तें॥

(२७) ब्रजवासी दास––ये वृंदावन के रहने वाले और वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी थे। इन्होंने संवत् १८२७ में 'ब्रजविलास' नामक प्रबंधकाव्य तुलसीदासजी के अनुकरण पर दोहों चौपाइयों में बनाया। इसके अतिरिक्त इन्होंने 'प्रबोधचंद्रोदय' नाटक का अनुवाद भी विविध छंदों में किया है। पर इनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'ब्रज विलास' ही हैं जिसका प्रचार साधारण श्रेणी के पाठको में हैं। इस ग्रंथ में कथा भी सूरसागर के क्रम से ली गई है और बहुत से स्थलों