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रीतिकाल के अन्य कवि

पर सूर के शब्द और भाव भी चौपाइयों में करके रख दिए गए हैं। इस बात को ग्रंथकार ने स्वीकार भी किया है––

यामें कछुक बुद्धि नहीं मेरी। उक्ति युक्ति सब सूरहिं केरी॥

इन्होंने तुलसी का छंद:क्रम ही लिया है, भाषा शुद्ध ब्रजभाषा ही है। उसमे कहीं अवधी या बैसवाडी का नाम तक नहीं है। जिनको भाषा की पहचान तक नहीं, जो वीररस वर्णन-परिपाटी के अनुसार किसी पद्य में वणों को द्वित्व देख उसे प्राकृत भाषा कहते है, वे चाहे जो कहे। ब्रजविलास में कृष्ण की भिन्न भिन्न लीलाओं का जन्म से लेकर मथुरा-गमन तक का वर्णन किया गया है। भाषा सीधी-सादी, सुव्यवस्थित और चलती हुई है। व्यर्थ शब्दों की भरती न होने से उसमें सफाई हैं। यह सब होने पर भी इसमें वह बात नहीं है जिसके बल से गोस्वामीजी के रामचरितमानस का इतना देशव्यापी प्रचार हुआ। जीवन की परिस्थितियों की वह अनेकरूपता, गंभीरता और मर्मस्पशिता इसमें कहाँ जो रामचरित और तुलसी की वाणी में है? इसमें तो अधिकतर क्रीड़ामय जीवन का ही चित्रण है। फिर भी साधारण श्रेणी के कृष्णभक्त पाठकों में इसका प्रचार है। आगे कुछ पद्य दिए जाते हैं––

कहति जसोदा कौन विधि, समझाऊँ अब कान्ह।
भूलि दिखायो चंद मैं, ताहि कहत हरि खान॥

यहै देत नित माखन मोकों। छिन छिन देति तात सो तोकों॥
जो तुम स्याम चंद कौ खैहौ। बहुरो फिर माखन कहू पैहौं?
देखत रहौ खिलौना चंदा। हठ नहिं कीजै बालगोविंदा॥
पा लागौं हठ अधिक न कीजै। मैं बलि, रिसहि रिसहि तन छीजै॥
जसुमति कहति कहा धौं कीजै। माँगत चंद कहाँ तें दीजै॥
तब जसुमति इक जलपुट लीनो। कर मैं लै तेहि ऊँचो कीनो॥
ऐसे कहि श्यामै बहरावै। आव चंद! तोहि लाल बुलावै॥
हाथ लिए तेहि खेलत रहिए। नैकु नहीं धरनी पै धरिए॥

(२८) गोकुलनाथ, गोपीनाथ और मणिदेव––इन तीनों महानुभावों ने मिलकर हिंदी-साहित्य में बड़ा भारी काम किया है। इन्होंने समग्र महाभारत