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हिंदी-साहित्य का इतिहास


दुर्ग अतिही महत् रक्षित भटन सों चहुँ ओर।
ताहि घेरयो शाल्व भूपति सेन लै अति घोर॥
एक मानुष निकसिबे की रही कतहुँ न राह।
परी सेना शाल्व नृप की भरी जुद्ध-उछाह॥



लहि सुदेष्णा की सुआज्ञा नीच कीचक जौन।
जाय सिंहिनि पास जंबुक तथा कीनो गौन॥
लग्यो कृष्ण सों कहन या भाँति सस्मित बैन।
यहाँ आई कहाँ तें? तुम कौन हौ छबि-ऐन?



नहीं तुम सी लखी भू पर भरी-सुषमा बाम।
देवि, जच्छिनि, किन्नरी, कै श्री, सची अभिराम॥
कांति सों अति भरो तुम्हरो लखत बदन अनूप।
करैगो नहिं स्वबस काको महा मन्मथ भूप॥

(महाभारत)


गोपीनाथ––


सर्वदिसि में फिरत भीषम को सुरथ मन-मान।
लखे सब कोउ तहाँ भूप अलातचक्र समान॥
सर्व थर सब रथिन सों तेहिं समय नृप सब ओर।
एक भीषम सहस सम रन जुरो हो तहँ जोर॥


मणिदेव––


वचन यह सुनि कहत भो चक्रांत हंस उदार।
उड़ौगे मम संग किमि तुम कहहु सो उपचार॥
खाय जुठो पुष्ट, गर्वित काग सुनि ये बैन।
कह्यो जानत उड़न की शत रीति हम बलऐन॥