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हिंदी-साहित्य का इतिहास

कवि बोधा अनी घनी नेजहु तें चढ़ि तापै न चित्त डरावनो है।
यह प्रेम को पंथ कराल महा तरवारि की धार पै धावनो हैं॥


एक सुभान के आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को।
कैयो सतऋतु की पदवी लुटिए लखि कै मुसाहट ताको॥
सोक जरा गुजरा न जहाँ कवि बोधा जहाँ उजरा न तहाँ को।
जान मिलै तो जहान मिलै, नहिं जान मिलै तौ जहान कहाँ को॥


'कबहूँ मिलिबो, कबहूँ मिलिबो' वह धीरज ही में धरैबो करै।
उरतें कढ़ि आवै,गरे तें फिरैं, मन की मन ही में सिरैबो करै॥
कवि बोधा न चाँड सरी कबहूँ, नितही हरवा सो हिरैबो करै।
सहते ही बनै, कहते न बनै, मन ही मन पीर पिरैबो करै॥


हिलि मिलि जानै तासों मिलि कै जनावै हेत,
हिसको न जानै ताको हितू न विसाहिए।
होय मगरूर तापै दूनी मगरूरी कीजै,
लघु ह्वै चलै जो तासों लधुता निवाहिए॥
बोधा कवि नीति को निबेरो यही भाँति अहै,
आपको सराहै ताहि आपहू सराहिए।
दाता कहा, सूर कहा, सुंदर सुजान कहा,
।आपको न चाहै ताके बाप को न चाहिए॥

(३०) रामचंद्र––इन्होंने अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया है। भाषा महिम्न के कर्ता काशीवासी मनियारसिंह ने अपने को "चाकर अखंडित श्रीरामचंद्र पंडित के" लिखा है। मनियारसिंह ने अपना "भाषा-महिम्न" संवत् १८४१ में लिखा। अतः इनका समय संवत् १८४० माना जा सकता है। इनकी एक ही पुस्तक "चरणचंद्रिका" ज्ञात है। जिस पर इनका सारा यश स्थिर है। यह भक्ति-रसात्मक ग्रंथ केवल ६२ कवित्तों का है। इसमें