तुलसीदासजी की रामायण के अनुकरण पर दोहों चौपाइयों में लिखी गई है। इन्होंने गोस्वामीजी की पदावली तक का अनुकरण किया है। स्थान-स्थान पर भाषा अनुप्रासयुक्त और संस्कृत-गर्भित है, इससे ब्रजवासीदास की चौपाइयों की अपेक्षा इनकी चौपाइयाँ गोस्वामीजी की चौपाइयों से कुछ अधिक मेल खाती हैं। पर यह मेल केवल कहीं कहीं दिखाई पड़ जाती है। भाषा-मर्मज्ञ को दोनों का भेद बहुत जल्दी स्पष्ट हो जाता है। इनकी भाषा ब्रज है, अवधी नहीं। इसमें वह सफाई और व्यवस्था कहाँ? कृष्णायन की अपेक्षा इनकी सुरभी-दानलीला की रचना अधिक सरस हैं। दोनों से कुछ अवतरण नीचे दिए जाते हैं––
कुंडल लोल अमोल कान के छुवत कपोलन आवैं।
डुलैं आप से खुलैं जोर छबि बरबस मनहिं चुरावैं॥
खौर बिसाल भाल पर सोभित केसर की चित भावैं।
ताके बीच बिंदु रोरी को, ऐसो बेस बनावें॥
भ्रुकुटी बंक नैन खंजन से कंजन गंजनवारे।
मद भंजन खग-मीन सदा जे मनरंजन अनियारे॥
(सुरभी-दानलीला से)
अचरज अमित भयो लखि सरिता। दुतिय ने उपमा कहि सम-चरिता॥
कृष्णदेव कहँ प्रिय जमुना सी। जिमि गोकुल गोलोक-प्रकासी॥
अति विस्तार पार, पय पावन। उभय करार घाट मन भावन॥
बनचर बनज बिपुल बहु पच्छी। अलि-अवली-धुनि-सुनि अति अच्छी॥
नाना जिनिस जीव सरि सेवैं। हिंसाहीन असन सुचि जेवैं॥
(कृष्णायन)
(३२) मधुसूदनदास––ये माथुर चौबे थे। इन्होंने गोविंददास नामक किसी व्यक्ति के अनुरोध से संवत् १८३९ में "रामाश्वमेध" नामक एक बड़ा और मनोहर प्रबंधकाव्य बनाया जो सब प्रकार से गोस्वामीजी के रामचरितमानस का परिशिष्ट ग्रंथ होने के योग्य है। इसमें श्रीरामचंद्र द्वारा अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान, घोड़े के साथ गई हुई सेना के साथ सुबाहु, दमन, विद्युन्माली