पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/४

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भीतर जिस एक ही ढंग के बहुत अधिक ग्रंथ प्रसिद्ध चले आते हैं उस ढंग की रचना उस काल के लक्षण के अंतर्गत मानी जायगी, चाहे और दूसरे-दूसरे ढंग की अप्रसिद्ध और साधारण कोटि की बहुत सी पुस्तके भी इधर-उधर कोनों में पड़ी मिल जाया करे। प्रसिद्धि भी किसी काल की लोक-प्रवृत्ति की प्रतिध्वनि है। सारांश यह कि इन दोनों बातों की ओर ध्यान रखकर काल-विभाग का नामकरण किया है।

आदिकाल का नाम मैंने 'वीरगाथा-काल' रखा है। उक्त काल के भीतर दो प्रकार की रचनाएँ मिलती है--अपभ्रंश की और देशभाषा (बोलचाल) की। अपभ्रंश की पुस्तकों में कई तो जैनो के धर्म-तत्व-निरूपण-सबंधी है जो साहित्य-कोटि में नहीं आतीं और जिनका उल्लेख केवल यह दिखाने के लिये ही किया गया है कि अपभ्रंश भाषा का व्यवहार कब से हो रहा था। साहित्य-कोटि में आनेवाली रचनाओं में कुछ तो भिन्न भिन्न विषयों पर फुटकल दोहे है। जिनके अनुसार उस काल की कोई विशेष प्रवृत्ति निर्धारित नहीं की जा सकती। साहित्यिक पुस्तकें केवल चार हैं---

१ विजयपाल रासो
२ हम्मीर रासो
३ कीर्तिलता
४ कीर्तिपताका


देशभाषा-काव्य की आठ पुस्तकें प्रसिद्ध हैं--

५ खुमान रासो
६ वीसलदेव रासो
७ पृथ्वीराज रासो
८ जयचदं-प्रकाश
९ जयमयंक-जस-चंद्रिका
१० परमाल रासो (आल्हा का मूलरूप)
११ खुसरो की पहेलियाँ आदि
१२ विद्यापति-पदावली