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रीतिकाल के अन्य कवि

राक्षस, वीरमणि, शिव, सुरथ आदि का घोर युद्ध; अंत में राम के पुत्र लव और कुश के साथ भयंकर संग्राम, श्रीरामचंद्र द्वारा युद्ध का निवारण और पुत्रों सहित सीता का अयोध्या में आगमन; इन सब प्रसंगों का पद्मपुराण के आधार पर बहुत ही विस्तृत और रोचक वर्णन है। ग्रंथ की रचना बिलकुल रामचरितमानस की शैली पर हुई है। प्रधानता दोहों के साथ चौपाइयों की है, पर बीच बीच में गीतिका आदि और छंद भी है। पद-विन्यास और भाषासौष्ठव रामचरितमानस का सा ही है। प्रत्यय और रूप भी बहुत कुछ अवधी के रखे गए हैं। गोस्वामीजी की प्रणाली के अनुसरण में, मधुसूदनदासजी को पूरी सफलता हुई है। इनकी प्रबंधकुशलता, कवित्व-शक्ति और भाषा की शिष्टता तीनों उच्च कोटि की हैं। इनकी चौपाइयाँ अलबत्तः गोस्वामीजी की चौपाइयों में बेखटके मिलाई जा सकती हैं। सूक्ष्म दृष्टि वाले भाषा मर्मज्ञो को केवल थोड़े ही ऐसे स्थलों में भेद लक्षित हो सकता है जहाँ बोलचाल की छाया होने के कारण भाषा का असली रूप अधिक स्फुटित है। ऐसे स्थलो पर गोस्वामीजी के अवधी के रूप और प्रत्यय न देखकर भेद का अनुभव हो सकता है। पर जैसा कहा जा चुका है, पदविन्यास की प्रौढ़ता और भाषा का सौष्ठव गोस्वामीजी के मेल का है।


सिय-रघुपति-पदकंज पुनीता। प्रथमहिं बंदन करौं सप्रीता॥
मृदु मंजुल सुंदर सब भाँती। ससि-कर-सरिस सुभग नख-पाँती॥
प्रणत कल्पतरु तर सब ओरा। दहन अज्ञ तम जन-चितचोरा॥
बिबिध कलुष कुंजर घनघोरा। जगप्रिसद्ध केहरि बरजोरा॥
चिंतामणि पारस सुरधेनू। अधिक कोटि गुन अभिमत देनू॥
जन-मन-मानस रसिक मराला। सुमिरत भंजन बिपति बिसाला॥



निरखि कालजित कोपि अपारा। विदित होय करि गदा प्रहार॥
महावेगयुत आवै सोई। अष्टधातुमय जाय न जोई॥
अयुत भार भरि भार प्रसाना। देखिय जमपति-दंड समाना॥
देखि नाहि लव हनि इषु चडा। कीन्हीं तुरत गदा त्रय खंडा॥
जिमि नभ माँह मेघ-समुदाई। बरषहिं बारि महा झरि लाई॥