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रीतिकाल के अन्य कवि

अभय कठोर बानी सुनि लछमन जू की,
मारिबे को चाहि जो सुधारि खल तरवारि।
वीर हनुमंत तेहि गरजि सुहास करि,
उपटि पकरि ग्रीव भूमि लै परे पछारि॥
पुच्छ तें लपेटि फेरि दंतन दरदराइ,
नखन बकोटि चोंथि देत महि डारि डारि।
उदर बिदारि मारि लुत्थन को टारि बीर,
जैसे मृगराज गजरान, डारै फारि फारि॥

(३४) कृष्णदास––ये मिरजापुर के रहनेवाले कोई कृष्णभक्त जान पड़ते हैं। इन्होंने संवत् १८५३ में "माधुर्य लहरी" नाम की एक बड़ी पुस्तक ४२० पृष्ठों की बनाई जिसमें विविध छंदो में कृष्णचरित का वर्णन किया गया है। कविता इनकी साधारणतः अच्छी है। एक कवित्त देखिए––

कौन काज लाज ऐसी करै जो अकाज अहो,
बार बार कहो नरदेव कहाँ पाइए।
दुर्लभ, समाज मिल्यो सफल सिद्धांत जानि,
लीला गुन नाम धाम रूप सेवा गाइए॥
बानी की सयानी सब पानी में बहाय दीजै,
जानी सो न रीति जासों दंपति रिझाइए।
जैसी जैसी गही जिन लही तैसी नैननहू,
धन्य धन्य राधाकृष्ण नित ही गनाइए॥

(३५) गणेश––ये नरहरि बंदीजन के वंश में लाल कवि के पौत्र और गुलाब कवि के पुत्र थे। ये काशीराज महाराज उदितनारायणसिंह के दरबार में थे और महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायणसिंह के समय तक जीवित रहे। इन्होंने तीन ग्रंथ लिखे–१––वाल्मीकी रामायण श्लोकार्थ प्रकाश। (बालकांड समग्र और किष्किंधा के पाँच अध्याय) २––प्रद्युम्नविजय नाटक। ३––हनुमत् पचीसी।

प्रद्युम्नविजय नाटक समग्र पद्यबद्ध हैं और अनेक प्रकार के छंदों में सात