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हिंदी-साहित्य का इतिहास

अंको में समाप्त हुआ है। इसमें दैत्यों के वज्रनाभपुर नामक नगर में प्रद्युम्न के जाने और प्रभावती से गांधर्व विवाह होने की कथा हैं। यद्यपि इसमे पात्रप्रवेश, विष्कंभक, प्रवेशक आदि नाटक के अंग रखे गए हैं पर इतिवृत्त का भी वर्णन पद्य में होने के कारण नाटकत्व नहीं आया है। एक उदाहरण दिया जाता है––


ताही के उपरांत कृष्ण इंद्र आवत भए।
भेंटि परस्पर कांत बैठ सभासद मध्य तहँ॥

बोले हरि इंद्र सों बिनै कै कर जोरि दोऊ,
आजु दिग्विजय हमारे हाथ आयो है।
मेरे गुरु लोग सब तोषित भए हैं आजु,
पूरो तप दान, भाग्य सफल सुहायो है॥
कारज समस्त सरे, मंदिर में आए आप,
देवन के देव मोहि धन्य ठहरायो है।
सो सुनि पुरंदर उपेंद्र लखि आदर सों,
बोले सुनौ बंधु! दानवीर नाम पायो है॥

(३६) सम्मन––ये मल्लावाँ (जि॰ हरदोई) के रहनेवाले ब्राह्मण थे और संवत् १८३४ में उत्पन्न हुए थे। इनके नीति के दोहे गिरिधर की कुंडलियाँ के समान गाँवों तक में प्रसिद्ध हैं। इनके कहने के ढंग मे कुछ मार्मिकता है। "दिनों के फेर" आदि के संबंध में इनके मर्मस्पर्शी दोहे स्त्रियों के मुँह से बहुत सुने जाते हैं। इन्होंने संवत् १८७९ में "पिंगल काव्य-भूषण" नामक एक रीति-ग्रंथ भी बनाया। पर ये अधिकतर अपने दोहों के लिये ही प्रसिद्ध है। इनका रचनाकाल संवत् १८६० से १८८० तक माना जा सकता है। कुछ दोहे देखिए––

निकट रहे आदर घटै, दूर रहे दुख होय।
सम्मन या संसार में, प्रीति करो जनि कोय॥
सम्मन चहौ सुख देह कौ तौ छाँड़ी ये चारि।
चोरी, चुगुली, जामिनी और पराई नारि॥