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रीतिकाल के अन्य कवि

सम्मन मीठी बात सों होत सबै सुख पूर।
जेहि नहिं सीखो बोलिबो, तेहि सीखो सब धूर॥


(३७) ठाकुर––इस नाम के तीन कवि हो गए हैं जिनमें दो असनी के ब्रह्मभट्ट थे और एक बुंदेलखंड के कायस्थ। तीनों की कविताएँ ऐसी मिल जुल गई हैं कि भेद करना कठिन है। हाँ, बुंदेलखंडी ठाकुर की वे कविताएँ पहचानी जा सकती हैं जिनमें बुंदेलखंडी कहावते या मुहावरे आए हैं।

असनीवाले प्राचीन ठाकुर

ये रीतिकाल के आरभ में संवत् १७०० के लगभग हुए थे। इनका कुछ वृत्त नहीं मिलेता; केवल फुटकल कविताएँ इधर उधर पाई जाती है। संभव है इन्होंने रीतिबद्ध रचना न करके अपने मन की उमंग के अनुसार ही समय-समय पर कवित्त सवैए बनाए हो जो चलती और स्वच्छ भाषा में है। इनके ये दो सवैए बहुत सुने जाते हैं––

सजि सूहै दुलकन बिज्जुछटा सी अटान चढीं धटा जोवति हैं।
सुचिती ह्वै सुनै धुनि मोरन की, रसमाती सँयोग सँजोवति हैं॥
कवि ठाकुर वै पिय दूरि बसैं, हम आँसुन सो तन धोवति हैं।
धनि वै धनि पावस की रतियाँ पति की छतियाँ लगि सोवति हैं॥


बौरे रसालन की चढ़ि डारन कूकत क्वैलिया मौन गहै ना।
ठाकुर कुंजन कुंजन, गुंजत भौंरन भीर चुपैबो चहै ना॥
सीतल मंद सुगंधित, बीर समीर लगे तन धीर रहै ना।
व्याकुल कीन्हो बसंत बनाय कै, जाय कै कंत सों कोऊ कहै ना॥

असनीवाले दूसरे ठाकुर

ये ऋषिनाथ कवि के पुत्र और सेवक कवि के पितामह थे। सेवक के भतीजे श्रीकृष्ण ने अपने पूर्वजों का जो वर्णन लिखा है उसके अनुसार ऋषिनाथजी के पूर्वज देवकीनंदन मिश्र गोरखपुर जिले के एक कुलीन सरयूपारी ब्राह्मण––पयासी के मिश्र––थे और अच्छी कविता करते थे। एक बार मँझौली के राजा