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हिंदी-साहित्य का इतिहास

दिखाई पड़ते हैं; कभी लोगों की क्षुद्रता, कुटिलता, दुःशीलता आदि पर क्षोभ प्रकट करते पाए जाते है और कभी काल की गति पर खिन्न, और उदास देखे जाते है। कविकर्म को ये कठिन समझते थे। रूढ़ि के अनुसार शब्दों की लडी जोड़ चलने को ये कविता नहीं कहते थे। नमूने के लिये वहाँ इनके थोड़े ही से पद्य दिए जा सकते है––

सीखि लीन्हौं मीन मृग खंजन कमल नैन,
सीखि लीन्हौं जस औ, प्रताप को कहानो है।
सीखि लीन्हों कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतामनि, ्
सीखि लीन्हों मेरु औ कुबेर गिरि आनो है॥
ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात,
याको नहिं भूलि कहूँ बाँधियत बानो है।
ढेंल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच,
लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है॥


दस बार, बीस बार बरजि दई है जाहि,
एतै पै न मानै जौ तौ जरन बरन देव।
कैसो कहा कीजै कछू आपनो करो न होय,
जाके जैसे दिन ताहि तैसेई भरन देव॥
ठाकुर कहत मन आपनो मगन राखौ,
प्रेम निहसंक रस-रंग बिहरन देव।
बिधि के बनाए जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ,
खेलते फिरत तिन्हैं खेलन फिरन देव॥


अपने अपने सुठि गेहन में चढे दोऊ सनैह की नाव पै री।
अँगनान में भींजत प्रेम भरे, समयो लखि मैं बलि जावँ पै री॥
कहैं ठाकुर दोउन की रुचि सो रंग ह्वै उमड़े तोउ ठावँ पै री।
सखी, कारी घटा बरसै बरसाने पै, गोरी घटा नँदगाँव पै री॥