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हिंदी-साहित्य का इतिहास

है। इस पंथ का प्रचार राजपूताने तथा पंजाब की ओर ही अधिक रहा। अतः जब मत के प्रचार के लिये इस पंथ में भाषा के भी ग्रंथ लिखे गए तब उधर की ही प्रचलित भाषा का व्यवहार किया गया। उन्हें मुसलमानों को भी अपनी बानी सुनानी रहती थी जिनकी बोली अधिकतर दिल्ली के आसपास की खड़ी बोली थी। इससे उसका मेल भी उनकी बानियों में अधिकतर रहता था। इस प्रकार नाथ-पंथ के इन जोगियों ने परंपरागत साहित्य की भाषा या काव्यभाषा से, जिसका ढाँचा नागर-अपभ्रंश या ब्रज का था, अलग एक 'सधुक्कड़ी' भाषा का सहारा लिया जिसका ढाँचा कुछ खड़ी बोली लिए राजस्थानी था। देशभाषा की इन पुस्तकों में पूजा, तीर्थाटन आदि के साथ साथ हज, नमाज आदि का भी उल्लेख पाया जाता है। इस प्रकार की एक पुस्तक का नाम है 'काफिरबोध'।[१]

नाथपंथ के उपदेशों का प्रभाव हिंदुओं के अतिरिक्त मुसलमानों पर भी प्रारंभकाल में ही पड़ा। बहुत से मुसलमान, निम्न श्रेणी के ही सही, नाथ-पंथ में आए। अब भी इस प्रदेश में बहुत से मुसलमान जोगी गेरुआ वस्त्र पहने गुदड़ी की लंबी झोली लटकाए, सारंगी बजा बजाकर 'कलि में अमर राजा भरथरी' के गीत गाते फिरते हैं और पूछने पर गोरखनाथ को अपना आदिगुरु बताते हैं। ये राजा गोपीचंद के भी गीत गाते हैं जो बंगाल में चटिगाँव के राजा थे और जिनकी माता मैनावती कहीं गोरख की शिष्या और कहीं जलंधर की शिष्या कही गईं हैं।

देशभाषा में लिखी गोरखपंथ की पुस्तकें गद्य और पद्य दोनों में हैं और विक्रम संवत् १४०० के आसपास की रचनाएँ हैं। इनमें सांप्रदायिक शिक्षा है। जो पुस्तकें पाई गई हैं उनके नाम ये हैं––गोरख-बोध, गोष्ठी, महादेव-गोरख संवाद, गोरखनाथ जी की सत्रह कला, गोरखबोध, दत्त-गोरख-संवाद, योगेश्वरी साखी, नरवइ बोध, विराट पुराण, गोरखसार, गोरखनाथ की बानी। ये सब ग्रंथ गोरख के नहीं, उनके अनुयायी शिष्यो के रचे हैं। गोरख के समय में जो


  1. यह, तथा इसी प्रकार की और कुछ पुस्तकें, मेरे प्रिय शिष्य डाक्टर पीतांबरदत्त बड़थ्वाल के पास हैं।