पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/४११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३८६
हिंदी-साहित्य का इतिहास

महाराज रघुराजसिंह के रामस्वयंवर का है वही इसका भी समझिए। पर इसमें सादगी हैं और यह केवल दोहे चौपाइयों में लिखा गया है। वर्णन करने में ललकदासजी ने भाषा के कवियों के भाव तो इकट्ठे ही किए है; संस्कृत कवियों के भाव भी कहीं कहीं रखे है। रचना अच्छी जान पड़ती है। कुछ चौपाइयाँ देखिए––

धरि निज अंक राम को माता। लख्यो मोद लखि मुख मृदु गाता॥
दंत कुद मुकुता सम सोहै। बंधु जीव सम जीभ बिमोहै॥
किसलय सधर अधर छबि छाजै। इंद्रनील सम गंड बिराजै॥
सुंदर चिबुक नासिका सोहैं। कुंकुम तिलक चिलक मन मोहै॥
काम चाप सम भ्रकुटि बिराजै। अलक-कलित मुख अति छबि छाजै॥
यहि विधि सकल राम के अंगा। लखि चूमति जननी सुख संगा॥

(३९) खुमान––ये बंदीजन थे और चरखारी (बुंदेलखंड) के महाराज विक्रमसाहि के यहाँ रहते थे। इनके बनाए इन ग्रंथों का पता है––

अमरप्रकाश (सं॰ १८३६), अष्टयाम (सं॰ १८५२), लक्ष्मणशतक (सं॰ १८५५) हनुमान नखशिख, हनुमान पंचक, हनुमान पचीसी, नीतिविधान, समरसार (युद्ध-यात्रा के मुहूर्त आदि का विचार), नृसिंह-चरित्र (सं॰ १८७९), नृसिंह-पचीसी।

इस सूची के अनुसार इनका कविता-काल सं॰ १८३० से १८८० तक माना जा सकता है "लक्ष्मणशतक" में लक्ष्मण और मेघनाद का युद्ध बड़े फड़कते हुए शब्दो में कहा गया। खुमान कविता में अपना उपनाम 'मान' रखते थे। नीचे एक कवित्त दिया जाता है––

आयो इंद्रजीत दसकंथ को निबंध बंध,
बोल्यो रामबंधु सों प्रबंध किरवान को।
को है अंसुमाल, को है काल विकराल,
मेरे सामुहें भए न रहै मान महेसान को॥
तू तौ सुकुमार यार लखन कुमार! मेरी
मार बेसुमार को सहैया घमासान को?