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हिंदी-साहित्य का इतिहास

सगुन सरूप सदा सुषमा-निधान मंजु,
बुद्धि गुन गुनन अगाध बनपति से।
भनै नवलेस फैल्यो बिशद मही में यस,
बरनि न पावै पार झार फनपति से॥
जक्त निज भक्तन के कलुष प्रभजै रंजै,
सुमति बढ़ावै धन धान धनपति से।
अधर न दूजो देव सहज प्रसिद्ध यह,
सिद्धि-बरदैन सिद्ध ईस गनपति से॥

(४१) रामसहायदास––ये चौबेपुर (जिला बनारस) के रहनेवाले लाला भवानीदास कायस्थ के पुत्र थे और काशी-नरेश महाराज उदितनारायण सिंह के आश्रय में रहते थे। "बिहारी सतसई" के अनुकरण पर इन्होंने "रामसतसई" बनाई। बिहारी के अनुकरण पर बनी हुई पुस्तकों में इसी को प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इसके बहुत से दोहे सरस उद्भावना में बिहारी के दोहों के पास तक पहुँचते हैं। पर यह कहना कि ये दोहे बिहारी के दोहों में मिलाए जा सकते हैं, रसज्ञता और भावुकता से ही पुरानी दुश्मनी निकलना नहीं, बिहारी को भी नीचे गिराने का प्रयत्न समझा जायगा। बिहारी में क्या क्या मुख्य विशेषताएँ हैं यह उनके प्रसंग में दिखाया जा चुका है। जहाँ तक शब्दो की कारीगरी और वाग्वैदग्ध्य से संबंध है। वहीं तक अनुकरण करने का प्रयत्न किया गया है। और सफलता भी हुई है। पर हावो का वह सुंदर विधान, चेष्टाओ का वह मनोहर चित्रण, भाषा का वह सौष्ठव, सुचारियों की वह सुंदर व्यंजना इस सतसई में कहाँ? नकल ऊपरी बातों की हो सकती है, हृदय की नहीं है पर हृदय पहचानने के लिये हृदय चाहिए, चेहरे पर की दो आँखों से नहीं काम चल सकता। इस बड़े भारी भेद के होते हुए भी "रामसतसई" शृंगार-रस का एक उत्तम ग्रंथ है। इस सतसई के अतिरिक्त इन्होंने तीन पुस्तके और लिखी हैं––

वाणीभूषण, वृत्ततरंगिणी (सं॰ १८७३) और ककहरा।

वाणीभूषण अलंकार का ग्रंथ है और वृत्त-तरंगिणी पिंगल का। ककहरा जायसी की 'अखरावट' के ढंग की छोटी सी पुस्तक है और शायद सबसे पिछली