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हिंदी-साहित्य का इतिहास

भारी, गढ़धारी, सदा जंग की तयारी,
धाक मानै ना तिहारी या हमीर इठयारी है॥


भागे मीरजादे पीरजादे और अनीरजादे,
भागे खानजादे प्रान मरत बचाय कै।
भागे गज बाजि रथ पथ न सँभारैं, परैं
गोलन पै गोल, सूर सहमि संकाय कै॥
भाग्यो सुलतान जान बचत न जानि बेगि,
बलित बितुंड पै विराजि बिलखाय कै।
जैसे लगे जंगल में ग्रीष्म की आगि
चलै भागि मृग महिंष बराह बिललाय कै॥


थोरी थोरी बैसवारी नवल किशोरी सवै,
भोरी भोरी बातन बिहँसि मुख मोरती।
बसन विभूषन बिराजते बिभल बर,
मदन मरोरनि तरकि तन तोरतीं॥
प्यारे पातसाह के परम अनुराग रँगीं,
चाय भरी चायल चपल दृग जोरतीं।
काम-अबला सी, कलाधर की कला सी,
चारु चंपक-लत्ता सी चपला सी चित चोरतीं॥

(४३) बाबा दीनदयाल गिरि––ये गोसाई थे। इनका जन्म शुक्रवार बसंत पंचमी संवत् १८५९ में काशी के गायघाट मुहल्ले में एक पाठक के कुल में हुआ था। जब ये ५ या ६ वर्ष के थे तभी इनके माता-पिता इन्हें महत कुशागिरि को सौंप चल बसे। महंत कुशागिरि पचकोशी के मार्ग में पड़नेवाले देहली-विनायक नामक स्थान के अधिकारी थे। काशी में महंतजी के और भी कई मठ थे। वे विशेषतः गायघाट वाले मठ में रहा करते थे। बाबा दीनदयाल गिरि भी उनके चेले हो जाने पर प्रायः उसी मठ में रहते थे। जब