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हिंदी-साहित्य का इतिहास

तर अंग-वर्णन के मिलते हैं जिनसे अनुमान होता है कि इन्होंने कोई नखशिख लिखा होगा। शब्द-चमत्कार पर इनका ध्यान विशेष रहता था। जिससे कहीं कहीं कुछ भद्दापन आ जाता था। कुछ नमूने लीजिए––

छहरै छबीली छटा छूटि छितिमंडल पै,
उमग उजेरो महाओज उजबक सी।
कवि पजनेस कंज-मंजुल-मुखी के गात,
उपमाधिकाति कल कुंदन तबक सी॥
फैली दीप दीप दीप-दीपति दिपति जाकी,
दीपमालिका की रही दीपति दबक सी।
परत न ताव लखि मुख माहताब जब,
निकसी सिताब आफताब की भभक सी॥


पजनेस तसद्दुक ता बिसमिल जुल्फे फुरकत न कबूल कसे।
महबूब चुनाँ बदमस्त सनम अजदस्त अलाबक जुल्फ बसे॥
मजमूए, न काफ शिगाफ रुए सम क्यामत चश्म से खून बरसे।
मिजगाँ सुरमा तहरीर दुताँ नुकते, बिन बे, किन ते, किन से॥


(४५) गिरिधरदास—ये भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के पिता थे और ब्रजभाषा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे। इनका नाम तो बाबू गोपालचंद्र था पर कविता में अपना उपनाम ये 'गिरिधरदास', 'गिरिधर', 'गिरिधारन' रखते थे। भारतेंदु ने इनके संबंध में लिखा है कि "जिन श्री गिरिधरदास कवि रचे ग्रंथ चालीस"। इनका जन्म पौष कृष्ण १५ संवत् १८९० को हुआ। इनके पिता काले हर्षचंद, जो काशी के एक बड़े प्रतिष्ठित रईस थे, इन्हें ग्यारह वर्ष के छोड़ कर ही परलोक सिधारे। इन्होंने अपने निज के परिश्रम से संस्कृत और हिंदी में बड़ी, स्थिर योग्यता प्राप्त की और पुस्तकों का एक बहुत बड़ा अनमोल संग्रह किया। पुस्तकालय का नाम उन्होंने "सरस्वती भवन" रखा जिसका मूल्य स्वर्गीय डाक्टर राजेंद्रलाल मित्र एक लाख रुपया तक दिलवाते थे। इनके यहाँ उस समय के विद्वानों और कवियों की मंडली बराबर जमी रहती थी और