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हिंदी-साहित्य का इतिहास

इसे इस निश्चयपूर्वक ब्रजभाषा गद्य का पुराना रूप मान सकते हैं। साथ ही यह भी ध्यान होता है कि यह किसी संस्कृत लेख का "कथंभूती" अनुवाद न हो। चाहे जो हो, है यह संवत् १४०० के ब्रजभाषा-गद्य का नमूना।

इसके उपरांत फिर हमें भक्तिकाल में कृष्णभक्ति-शाखा के भीतर गद्य-ग्रंथ मिलते हैं। श्रीवल्लभाचार्य के पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथजी ने 'शृंगाररस मंडन' नामक एक ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखा। उनकी भाषा का स्वरूप देखिए––

"प्रथम की सखी कहतु है। जो गोपीजन के चरण विषै सेवक की दासी करि जो इनको प्रेमामृत में डूबि कै इनके मंद हास्य ने जीते है। अमृत समूह सा करि निकुज विषै शृंगाररस श्रेष्ठ रसना कीनो सो पूर्ण होत भई॥"

यह गद्य अपरिमार्जित और अव्यवस्थित हैं। पर इसके पीछे दो और साप्रदायिक ग्रंथ लिखे गए जो बडे भी हैं और जिनकी भाषा भी व्यवस्थित और चलती है। वल्लभ संप्रदाय में इनका अच्छा प्रचार है। इनके नाम हैं––"चौरासी वैष्णवो की वार्ता" तथा "दौ सौ बावन वैष्णवों की वार्ता"। इनमें से प्रथम, आचार्य श्री वल्लभाचार्यजी के पौत्र और गोसाईं विट्ठलनाथजी के पुत्र गोसाईं गोकुलनाथजी की लिखी कही जाती है, पर गोकुलनाथजी के किसी शिष्य की लिखी जान पड़ती हैं, क्योंकि इसमें गोकुलनाथजी का कई जगह बडे भक्तिभाव से उल्लेख है। इसमें वैष्णव भक्तों और आचार्यजी की महिमा प्रकट करनेवाली कथाएँ लिखी गई हैं। इसका रचनाकाल विक्रम की १७वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' और भी पीछे औरंगजेब के समय के लगभग की लिखी प्रतीत होती हैं। इन वार्ताओं की कथाएँ बोलचाल की ब्रजभाषा में लिखी गई हैं जिसमें कही कहीं बहुत प्रचलित अरबी फारसी शब्द भी निस्संकोच रखे गए हैं। साहित्यिक निपुणता या चमत्कार की दृष्टि से थे कथाएँ नहीं लिखी गई हैं। उदाहरण के लिये यह उद्धृत अंश पर्य्याप्त होगा––

"सो श्री नंदगाम में रहतो सो खंडन ब्राह्मण शास्त्र पढ़यो हतो। सो जितने पृथ्वी पर मत हैं सबको खंडन करतो; ऐसो वाको नेम हो। याही ते लोगन ने वाको नाम खड्न पारयो हुतो। सो एक दिन श्री महाप्रभुजी के सेवक