पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/४३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४०५
आधुनिक-काल

वैष्णवन की मंडली में आयो। सो खंडन करन लागो। वैष्णवन ने कही 'जो तेरो शास्त्रार्थ करानो होवै तो पंडितन के पास जा, हमारी मंडली में तेरे आयवे को काम नहीं। इहाँ खंडन मंडन नहीं है। भगवद्वार्त्ता को काम है भगवद्यश सुननो होवै तो इहाँ आवो'।"

नाभादासजी ने भी संवत् १६६० के आसपास 'अष्टयाम' नामक एक पुस्तक ब्रजभाषा-गद्य में लिखी जिसमें भगवान् राम की दिनचर्य्या का वर्णन है। भाषा इस ढंग की है––

"तब श्री महाराज कुमार प्रथम वसिष्ठ महाराज के चरन छुइ प्रनाम करत भए। फिर ऊपर वृद्ध-समाज तिनको प्रनाम करत भए। फिर श्री राजाधिराज जू को जोहार करिकै श्री महेद्रनाथ दसरथ जू निकट बैठते भए।"

संवत् १६८० के लगभग बैकुंठमणि शुक्ल ने, 'जो ओरछा के महाराज जसवंतसिंह के यहाँ थे, ब्रजभाषा गद्य में 'अगहन-माहात्म्य' और 'वैशाख-माहात्म्य' नाम की दो छोटी छोटी पुस्तके लिखीं। द्वितीय के सबंध में वे लिखते हैं––

"सब देवतन की कृपा तें बैकुठमनि सुकुल श्री रानी चंद्रावती के धरम पढिवे के अरथ यह जसरूप ग्रंथ बैसाख-महातम भाषा करत भए।––एक समय नारद जू ब्रह्मा की सभा से उठि कै सुमेर पर्वत को गए।"

ब्रजभाषा गद्य में लिखा एक 'नासिकेतोपाख्यान' मिला है जिसके कर्त्ता का नाम ज्ञात नहीं। समय १७६० के उपरांत है। भाषा व्यवस्थित है––

"हे ऋषिश्वरो! और सुनो, मैं देख्यो है सो कहूँ। कालै वर्ण महादुख के रूप जम, किंकर देखे। सर्प, बीछु, रीछ, व्याघ्र, सिंह बड़े बड़े ग्रघ्र देखे। पंथ में पापकर्मी को जमदूत चलाइ कै मुदगर अरु लोह के दंड कर मार देत हैं। आगे और जीवन को त्रास देते देखे हैं। सु मेरो रोम रोम खरो होत है।"

सूरति मिश्रने (संवत् १७६७) संस्कृत से कथा लेकर वैतालपचीसी लिखी, जिसको आगे चलकर लल्लूलाल ने खड़ी बोली हिंदुस्तानी में किया। जयपुर-नरेश सवाई प्रतापसिंह की आज्ञा से लाला हीरालाल ने संवत् १८५२ में "आईन अकबरी की भाषा वचनिका" नाम की एक बड़ी पुस्तक लिखी।