है कि उस भाषा अस्तित्व नहीं था। उर्दू का रूप प्राप्त होने के पहले भी खड़ी बोली अपने देशी रूप में वर्तमान थी और अब भी बनी हुई है। साहित्य में भी कभी कभी कोई इसका व्यवहार कर देता था, यह दिखाया जा चुका है।
भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय तक अपभ्रंश काव्यो की जो परपरा चलती रही उसके भीतर खड़ी बोली के प्राचीन रूप की भी झलक अनेक पद्यों में मिलती है। जैसे––
उसके उपरांत भक्तिकाल के आरंभ में निर्गुणधारा के संत कवि किस प्रकार खड़ी बोली का व्यवहार अपनी 'सधुक्कड़ी' भाषा में किया करते थे, इसका उल्लेख भक्तिकाल के भीतर हो चुका है[१]। कबीरदास के ये वचन लीजिए––
कबीर मन निर्मल भया जैसा गंगा नीर।
कबीर कहता जात हूँ, सुनता है सब कोइ।
राम कहे भला होयगा, नहिं तर भला न होइ॥
आऊँगा न जाऊँगा, मरूँगा न जीऊँगा।
गुरु के सबद रम रम रहूँगा॥
अकबर के समय में गंग कवि ने "चंद-छंद बरनन की महिमा" नामक एक गद्य-पुस्तक खड़ी बोली में लिखी थी। उसकी भाषा का नमूना देखिए––
- ↑ देखो पृष्ठ ८०।