वैष्णवों के अहिंसावाद और प्रपत्तिवाद को मिलाकर सिद्धों और योगियों द्वारा बनाए हुए इस रास्ते पर चल पड़ा, यह आगे दिखाया जायगा। कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार 'साखी' और 'बानी' शब्द मिले, उसी प्रकार 'साखी' और 'बानी' के लिये बहुत कुछ सामग्री और 'सधुक्कड़ी' की भाषा भी।
ये ही दो बातें दिखाने के लिये इस इतिहास में सिद्धों और योगियों का विवरण दिया गया है। उनकी रचनाओं को जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई संबंध नहीं। वे सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकती। उन रचनाओं की परंपरा को हम काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं कह सकते। अतः धर्म संबंधी रचनाओं की चर्चा छोड़, अब हम सामान्य साहित्य की जो कुछ सामग्री मिलती है, उसका उल्लेख उनके संग्रहकर्त्ताओं और रचयिताओं के क्रम से करते हैं।
हेमचंद्र—गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह (संवत् ११५०-११९९) और उनके भतीजे कुमारपाल (११९९-१९३०) के यहाँ इनका बड़ा मान था। ये अपने समय के सबसे प्रसिद्ध जैन आचार्य थे। इन्होंने एक बड़ा भारी व्याकरण-ग्रंथ 'सिद्ध हेमचंद्र शब्दानुशासन' सिद्धराज के समय में बनाया, जिसमें संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का समावेश किया। अपभ्रंश के उदाहरणों में इन्होंने पूरे दोहे या पद्य उद्धृत किए है, जिनमें से अधिकांश इनके समय से पहले के हैं। कुछ दोहे देखिए––
भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु।
लज्जेजं तु वयसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु॥
(भला हुआ जो मारा गया, हे बहिन! हमारा कांत। यदि वह भागा हुआ घर आता तो मै अपनी समवयस्काओं से लज्जित होती।)
जइ सो न आवइ, दूइ! घरु काहँ अहोमुहु, तुज्झु।
वयणु ज खंडइ तस, सहि ए! सो पिउ होइ न मुज्झु॥
(हे दूती! यदि वह घर नहीं आता तो तेरा क्यों अधोमुख है? हे सखी! जो