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हिंदी-साहित्य का इतिहास


इनका "नासिकेतोपाख्यान" भी उसी समय लिखा गया, जिस समय 'प्रेमसागर'। पर दोनों की भाषा में बहुत अंतर है। लल्लूलाल के समान इनकी भाषा में न तो ब्रजभाषा के रूपों की वैसी भरमार है और न परंपरागत काव्यभाषा की पदावली का स्थान स्थान पर समावेश। इन्होंने व्यवहारोपयोगी भाषा लिखने का प्रयत्न किया है और जहाँ तक हो सका है खड़ी बोली का ही व्यवहार किया है। पर इनकी भाषा भी साफ सुथरी नहीं है। ब्रजभाषा के भी कुछ रूप हैं और पूरबी बोली के शब्द तो स्थान स्थान पर मिलते हैं। "फूलन्ह के बिछौने", "चहुँदिस", "सुनि", "सोनन्ह के थम" आदि प्रयोग ब्रजभाषा के हैं। "इहाँ", "मतारी", "बरते थे", "जुड़ाई", "बाजने लगा", "जौन" आदि पूरबी शब्द हैं। भाषा के नमूने के लिये "नासिकेतोपाख्यान" से थोड़ा सा अवतरण नीचे दिया जाता है--

"इस प्रकार से नासिकेत मुनि यम की पुरी सहित नरक का वर्णन कर फिर जौन जौन कर्म किए से जो भोग होता है सो सब ऋषियों को सुनाने लगे कि गौ, ब्राह्मण, मातापिता, मित्र, बालक, स्त्री, स्वामी, वृद्ध, गुरु इनका जो वध करते हैं वो झूठी साक्षी भरते, झूठ ही कर्म में दिन रात लगे रहते हैं, अपनी भार्य्या को त्याग दूसरे की स्त्री को चाहते औरो की पीडा देख प्रसन्न होते हैं। और जो अपने धर्म से हीन पाप ही में गड़े रहते हैं वो मातापिता की हित बात को नहीं सुनते, सब से बैर करते हैं, ऐसे जो पापी जन हैं सो महा डेरावने दक्षिण द्वार से जा नरकों में पड़ते हैं।"

गद्य की एक साथ परंपरा चलाने वाले उपयुक्त चार लेखकों में से आधुनिक हिंदी का पूरा पूरा अभास मुंशी रादासुख और सदल मिश्र की भाषा में ही मिलता है। व्यवहारोपयोगी इन्हीं की भाषा ठहरती है। इन दो मे भी मुंशी सदासुख की साधु भाषा अधिक महत्त्व की है। मुशी सदासुख ने लेखनी भी चारो में पहले उठाई अतः गद्य का प्रवर्तन करने वालों में उनका विशेष स्थान समझना चाहिए।


संवत् १८६० के लगभग हिंदी गद्य का प्रवर्तन तो हुआ पर उसके साहित्य की अखंड परंपरा उस समय से नहीं चली। इधर उधर दो चार पुस्तके अनगढ़