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हिंदी-साहित्य का इतिहास

का अवलंबन ईसाई उपदेशकों को आवश्यक दिखाई पड़ा। जिस संस्कृत-मिश्रित भाषा का विरोध करना कुछ लोग एक फैशन समझते हैं उससे साधारण जन-समुदाय उर्दू की अपेक्षा कहीं अधिक परिचित रहा है और है। जिन अँगरेजो को उत्तर भारत में रहकर केवल मुंशीयों और खानसामों की ही बोली सुनने का अवसर मिलता है वे अब भी उर्दू या हिंदुस्तानी को यदि जनसाधारण की भाषा समझा करें तो कोई आश्चर्य नहीं। पर उन पुराने पादरियों ने जिस शिष्ट भाषा में जनसाधारण को धर्म और ज्ञान आदि के उपदेश सुनते-सुनाते पाया उसी को ग्रहण किया।

ईसाइयो ने अपनी धर्मपुस्तक के अनुवाद की भाषा में फारसी और अरबी के शब्द जहाँ तक हो सका है नहीं लिए है और ठेठ ग्रामीण शब्द तक बेधड़क रखे गए हैं। उनकी भाषा सदासुख और लल्लूलाल के ही नमूने पर चली है। उसमें जो कुछ विलक्षणता सी दिखाई पड़ती है वह मूल विदेशी भाषा की वाक्यरचना और शैली के कारण। प्रेमसागर के समान ईसाई धर्मपुस्तक में भी 'करनेवाले' के स्थान पर 'करनहारे', 'तक' के स्थान पर 'लौ', 'कमरबंद' के स्थान पर 'पटुका' प्रयुक्त हुए है। पर लल्लूलाल के इतना ब्रजभाषापन नहीं आने पाया है। 'आय' 'जाय' का व्यवहार न होकर 'आके' 'जाके' व्यवहृत हुए हैं। सारांश यह कि ईसाई मत-प्रचारकों ने विशुद्ध हिंदी का व्यवहार किया है। एक नमूना नीचे दिया जाता है––

"तब यीशु योहन से बपतिरमा लेने को उस पास गालील से यर्दन के तीर पर आया। परंतु योहन यह कह के उसे वर्जने लगा कि मुझे आपके हाथ से बपतिस्मा लेना अवश्य है और क्या आप मेरे पास आते हैं! यीशु ने उसको उत्तर दिया कि अब ऐसा होने दे क्योंकि इसी रीति से सब धर्म को पूरा करना चाहिए। यीशु बपतिस्मा लेके तुरंत जल के ऊपर आया और देखो उसके लिये स्वर्ग खुल गया और उसने ईश्वर के आत्मा को कपोत की नाईं उतरते और अपने ऊपर आते देखा, और देखो यह आकाशवाणी हुई कि यह मेरा प्रिय पुत्र है जिससे मैं अति प्रसन्न हूँ।"

इसके आगे ईसाइयों की पुस्तकें और पैंफलेट बराबर निकलते रहे। उक्त