तेरा वचन खंडित करता है––श्लेष से दूसरा अर्थ; जो तेरे मुख पर चुंबन द्वारा क्षत करता है––वह मेरा प्रिय नहीं।)
जे महु दिण्णा दिअहड़ा दहएँ पवसत्तेण।
ताण गणंतिए अंगुलिउँ जज्जरियाउ नहेण॥
(जो दिन या अवधि दयित अर्थात् प्रिय ने प्रवास जाते हुए मुझे दिए थे। उन्हे नख से गिनते गिनते मेरी उँगलियाँ जर्जरित हो गईं।)
पिय संगमि कउ निद्दड़ी? पियह परक्खहो केंव।
महँ विन्निवि विन्नासिया, निह न एँव न तेंव॥
(प्रिय के संगम में नींद कहाँ और प्रिय के परोक्ष में भी क्योंकर आवे? मैं दोनों प्रकार से विनाशिता हुई––न यों नींद न त्यों।)
अपने व्याकरण के उदाहरणों के लिये हेमचंद्र ने भट्टी के समान एक 'द्वयाश्रय काव्य' की भी रचना की है जिसके अंतर्गत "कुमारपालचरित" नामक एक प्राकृत काव्य भी है। इस काव्य में भी अप्रभ्रंश के पद्य रखे गए हैं।
सोमप्रभ सूरि––ये भी एक जैन पंडित् थे। इन्होंने संवत् १२४१ में "कुमारपालप्रतिबोध" नामक एक गद्यपद्यमय संस्कृत-प्राकृत-काव्य लिखा जिसमें समय समय पर हेमचंद्र द्वारा कुमारपाल को अनेक प्रकार के उपदेश दिए जाने की कथाएँ लिखी हैं। यह ग्रंथ अधिकांश प्राकृत में ही है––बीच बीच में संस्कृत श्लोक और अपभ्रंश के दोहे आए हैं। अपभ्रंश के पद्यों में कुछ तो प्राचीन हैं और कुछ सोमप्रभ और सिद्धिपाल कवि के बनाए हैं। प्राचीन में से कुछ दोहे दिए जाते है––
रावण जायउ जहि दिअहि दह मुह एक सरीरु।
चिंताविय तइयहि जणणि कवणु पियवउँ खीरु॥
(जिस दिन दस मुँह एक शरीरवाला रावण उत्पन्न हुआ तभी माता चिंतित हुई कि किसमें दूध पिलाऊँ।)
बेस बिसिट्ठह बारियइ जइवि मणोहर गत्त।
गंगाजल पक्खालियवि सुणिहि कि होइ पवित्त?