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हिंदी-साहित्य का इतिहास

'भूगोलसार' और संवत् १९०४ में पंडित बद्रीलाल शर्मा ने "रसायनप्रकाश" लिखा। कलकत्ते में भी ऐसी ही एक स्कूल-बुक-सोसाइटी थी जिसने "पदार्थविद्यासार" (सं॰ १९०३) आदि कई वैज्ञानिक पुस्तकें निकाली थीं। इसी प्रकार कुछ रीडरें भी मिशनरियों के छापेखानों से निकली थीं––जैसे "आजमगढ़ रीडर" जो इलाहाबाद मिशन प्रेस से संवत् १८९७ में प्रकाशित हुई थी।

बलवे के कुछ पहले ही मिर्जापुर में ईसाइयों का एक और "आरफेन प्रेस" खुला था जिससे शिक्षा संबधिनी कई पुस्तकें शेरिंग साहब के संपादन में निकली थीं, जैसे––भूचरित्रदर्पण, भूगोल विद्या, मनोरंजक वृत्तांत, जंतुप्रबंध, विद्यासागर, विद्वान् संग्रह। ये पुस्तकें संवत् १९१२ और १९१९ के बीच की है। तब से मिशन सोसाइटियों के द्वारा बराबर विशुद्ध हिंदी में पुस्तकें और पैंफलेट आदि छपते आ रहे हैं जिनमें कुछ खंडन मंडन, उपदेश और भजन आदि रहा करते हैं। भजन रचनेवाले कई अच्छे ईसाई कवि हो गए हैं जिनमें दो एक अँगरेज भी थे। "आसी" और "जान" के भजन देशी ईसाइयों में बहुत प्रचलित हुए और अब तक गाए जाते हैं। सारांश यह कि हिंदी-गद्य के प्रसार में ईसाइयों का बहुत कुछ योग रहा। शिक्षा-संबंधिनी पुस्तकें तो पहले पहल उन्हीं ने तैयार की। इन बातों के लिये हिंदी-प्रेमी उनके सदा कृतज्ञ रहेगें।

कहने की आवश्यकता नहीं कि ईसाइयों के प्रचार-कार्य का प्रभाव हिंदुओं की जनसंख्या पर ही पड़ रहा था। अतः हिंदुओ के शिक्षित वर्ग के बीच स्वधर्म-रक्षा की आकुलता दिखाई पड़ने लगी। ईसाई उपदेशक हिंदू-धर्म की स्थूल और बाहरी बातों को लेकर ही अपना खंडन-मंडन चलाते आ रहे थे। यह देखकर बंगाल में राजा राममोहन राय उपनिषद् और वेदांत का ब्रह्मज्ञान लेकर उसका प्रचार करने खड़े हुए। नूतन शिक्षा के प्रभाव से पढ़े लिखे लोगों में से बहुतों के मन में मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, जाति-पाँति, छूआ-छूत आदि के प्रति अश्रद्धा हो रही थी। अतः राममोहन राय ने इन बातों को अलग करके शुद्ध ब्रह्मोपासना का प्रवर्त्तन करने के लिये 'ब्रह्म-समाज' की नींव डाली। संवत् १८७२ में उन्होंने वेदांत-सूत्रों के भाष्य का हिंदी-अनुवाद