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आधुनिक-काल

करके प्रकाशित कराया था। संवत् १८८६ में उन्होंने "बंगदूत" नाम का एक संवादपत्र भी हिंदी में निकाला। राजा साहब की भाषा में एक-आध जगह कुछ बँगलापन जरूर मिलता है, पर उसका रूप अधिकांश में वही है जो शास्त्रज्ञ विद्वानो के व्यवहार में आता था। नमूना देखिए––

"जो सब ब्राह्मण साग वेद अध्ययन नहीं करते सो सब व्रात्य है, यह प्रमाण करने की इच्छा करके ब्राह्मणधर्म-परायण श्री सुब्रह्मण्य शास्त्रीजी ने जो पत्र साग वेदाध्ययन-हीन अनेक इस देश के ब्राह्मणो के समीप पठाया है, उसमें देखा जो उन्होंने लिखा है––वेदाध्ययन-हीन मनुष्यों को स्वर्ग और मोक्ष होने शक्ता नहीं"।

कई नगरो में, जिनमे कलकत्ता मुख्य था, अब छापेखाने हो गए थे। बंगाल से कुछ अँगरेजी और कुछ बँगला के पत्र भी निकलने लगे थे जिनके पढ़नेवाले भी हो गए थे। इस परिस्थिति में प॰ जुगुलकिशोर ने, जो कानपुर के रहनेवाले थे, संवत् १८८३ में "उदंतमार्त्तंड" नाम का एक संवादपत्र निकाला जिसे हिंदी का पहला समाचारपत्र समझना चाहिए जैसा कि उसके इस लेख से प्रकट होता है––

"यह उदंत-मार्त्तंड अब पहिले पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेत जो आज तक किसी ने नहीं चलाया, पर अँगरेजी ओ पारसी ओ बँगले में जो समाचार का कागज छपता है उसका सुख उन बोलियो के जान्ने ओ पढ़नेवालो को ही होता है। इससे सत्य समाचार हिंदुस्तानी लोग देखकर आप पढ़ समझ ओ लेयँ ओ पराई अपेक्षा न करे ओ अपने भाषे की उपज न छोड़े इसलिए......श्रीमान् गवरनर जेनेरेल बहादुर की आयस से ऐसे साहस में चित्त में लगाय के एक प्रकार से यह नया ठाट ठाटा। जो कोई प्रशस्त लोग इस खबर के कागज के लेने की इच्छा करें तो अमड़ा तला की गली ३७ अंक मार्त्तड-छापाघर में अपना नाम ओ ठिकाना भेजने ही से सतवारे के सतवारे यहाँ के रहनेवाले घर बैठे ओ बाहिर के रहनेवाले डाक पर कागज पाया करेंगे।"

यह पत्र एक ही वर्ष चलकर सहायता के अभाव से बंद हो गया। इसमें