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प्रकरण २

गद्य-साहित्य का आविर्भाव

किस प्रकार हिंदी के नाम से नागरी अक्षरों में उर्दू ही लिखी जाने लगी थी, इसकी चर्चा 'बनारस अखबार' के संबंध में कर आए हैं[१]। संवत् १९१३ में अर्थात् बलवे के एक वर्ष पहले राजा शिवप्रसाद शिक्षा-विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त हुए। उस समय और दूसरे विभागों के समान शिक्षा-विभाग में भी मुसलमानों का जोर था जिनके मन में 'भाखापन' का डर बराबर समाया रहता था। वे इस बात से डरा करते थे कि कहीं नौकरी के लिये 'भाखा', संस्कृत से लगाव रखनेवाली हिंदी, न सीखनी पड़े। अतः उन्होंने पहले तो उर्दू के अतिरिक्त हिंदी की भी पढ़ाई की व्यवस्था का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि जब अदालती कामों में उर्दू ही काम में लाई जाती है तब एक और जवान का बोझ डालने से क्या लाभ? 'भाखा' में हिंदुओं की कथा-वार्ता आदि कहते सुन वे हिंदी को हिंदुओं की मजहबी जबान कहने लगे थे। उनमें से कुछ लोग हिंदी को "गँवारी बोली" भी कहा करते थे। इस परिस्थिति में राजा शिवप्रसाद को हिंदी की रक्षा के लिये बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। हिंदी का सवाल जब आता तब मुसलमान उसे 'मुश्किल जवान' कहकर विरोध करते। अतः राजा साहब के लिये यही संभव दिखाई पड़ा कि जहाँ तक हो सके ठेठ हिंदी का आश्रय लिया जाय जिसमें कुछ फारसी-अरबी के चलते शब्द भी आएँ। उस समय साहित्य के कोर्स के लिये पुस्तकें नहीं थीं। राजा साहब स्वयं तो पुस्तके तैयार करने में लग ही गए, पंडित श्रीलाल और पंडित वंशीधर आदि अपने कई मित्रों को भी उन्होने पुस्तके लिखने में लगाया। राजा साहब ने पाठ्यक्रम के उपयोगी कई कहानियाँ आदि लिखीं––जैसे, राजा भोज का सपना, वीरसिंह का वृत्तांत, आलसियों को कोड़ा, इत्यादि। संवत् १९०९ और १९१९


  1. देखो पृ॰ ४३१।