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हिंदी-साहित्य का इतिहास


सोने-चाँदी और रत्नों की खान से भी दूना उसके दान ने राजा कर्ण को लोग के जी से भुलाया और उसके न्याय ने विक्रम को भी लजाया ।

अपने “मानवधर्मसार" की भाषा उन्होनें अधिक संस्कृतामिंत रखी है। इसका पता इस उद्धृत अंश से लगेगा-

"मनुस्मृति हिंदुओं का मुख्य धर्मशास्त्र है। उसको कोई भी हिंदू अप्रामाणिक नहीं कह सकता । वेद में लिखा है कि मनुजी ने जो कुछ कहा उसे जीव के लिये औषधि समझना; और वृहस्पति लिखते हैं कि धर्मशास्त्राचार्यों में मनुजी सबसे प्रधान और अति मान्य हैं क्योंकि उन्होंने अपने धर्मशास्त्र में सपूर्ण वेदों का तात्पर्य लिखा है । खेद की बात है कि हमारे देशवासी हिंदू कहला के अपने मानव-धर्मशास्त्र को न जानें और सारे कार्य उसके विरुद्ध करें"।

मानवधर्मसार की भाषा राजा शिवप्रसाद की स्वीकृत भाषा नहीं । प्रारंभकाल से ही वे ऐसी चलती ठेठ हिंदी के पक्षपाती थे जिसमे सर्वसाधारण के बीच प्रचलित अरबी-फारसी शब्दों को भी स्वच्छंद प्रयोग हो । यद्यपि अपने गुटका' में, जो साहित्य की पाठ्य-पुस्तक थी, उन्होंने थोड़ी संस्कृत मिली ठेठ और सरल भाषा का ही आदर्श बनाए रखा, पर संवत् १९१७ के पीछे उनका झुकाव उर्दू की ओर होने लगी जो बराबर बना क्या रहा, कुछ न कुछ बढ़ता ही गया । इसका कारण चाहे जो समझिए । या तो यह कहिए कि अधिकांश शिक्षित लोगों की प्रवृत्ति देखकर उन्होंने ऐसा किया अथवा अँगरेज अधिकारियों का रुख देखकर । अधिकतर लोग शायद पिछले कारण को ही ठीक समझेगे । जो हो, संवत् १९१७ के उपरांत जो इतिहास, भूगोल आदि की पुस्तके राजा साहब ने लिखीं उनकी भाषा बिल्कुल उर्दूपन लिए है । इतिहास-तिमिरनाशक” भाग २ की अँगरेजी भूमिका में, जो सन् १८६४ की लिखी है, राजा साइब ने साफ लिखा है कि मैंने वैताल-पचीसी' की भाषा का अनुकरण किया है..."

'I may be pardoned for sayiñg a few words here to those who always urge the exclusion of Persian words, even those