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गद्य-साहित्य का आविर्भाव


which have become our household words, from our Hindi books and use in their stead Sanskrit words quite out of place and fashion or those coarso expressions which can be tolerated only among a rustic population X X X I have adopted, to a certain extent, the language of the Baital Pachisi”

लल्लूलाल जी के प्रसंग में यह कहा जा चुका है "बैताल-पचीसी" की भाषा विल्कुल उर्दू है। राजा साहब ने अपने इस उर्दूवाले पिछले सिद्धांत का भाषा का इतिहास” नामक जिस लेख में निरूपण किया है, वही उनकी उस समय की भाषा का एक खास उदाहरण है, अतः उसका कुछ अंश यहाँ दिया जाता है-

हम लोगों को जहाँ तक बन पड़े चुनने में उन शब्दों को लेना चाहिए कि जो श्राम-फहम और खास-पद हों अर्थात् जिनको जियादा आदमी समझ सकते हैं और अ यहाँ के पढे लिखे आलिम 'फाजिल, पंडित, विद्वान् की बोल-चाल में छोड़े नहीं गए हैं। और जहाँ तक बन पड़े हम लोगों को इगिज़ गैर मुल्क के शब्द काम में न जाने चाहि और न संस्कृत की टकसाल कायम करके नए नए ऊपरी शब्दों के सिक्के जारी करने चाहिएँ, जब तक कि इम लोगों को उसके जारी करने की जरूरत न साबित हो जाये अर्थात् यह कि उस अर्थ का कोई शब्द हमारी अमान में नहीं है, या जो है अच्छा नहीं है, या कविताई की जरूरत या इल्मी जरूरत या कोई और खास ज़रूरत साबित हो जाय।”

भाषा-संबंधी जिस सिद्धांत का प्रदिपादन राजा साहब ने किया है उसके अनुकूल उनकी यह भाषा कहाँ तक है, पाठक श्राप समझ सकते हैं। आमफहम’ ‘खास-पसंद’ ‘इल्मी ज़रूरत' जनता के बीच प्रचलित शब्द कदापि नहीं हैं। फारसी के 'आलिम-फाजिल' चाहे ऐसे शब्द बोलते हों पर संस्कृत-हिंदी के पंडित-विद्वान् तो ऐसे शब्दों से कोसों दूर हैं। किसी देश के साहित्य का संबंध उस देश की संस्कृति-परपरा से होता है। अत: साहित्य की भाषा उस संस्कृति का त्याग करके नहीं चल सकती। भाषा में जो रोचकता या शब्दों में जो सौंदर्य का भाव रहता है वह देश की? प्रकृति के अनुसार होता है। इस प्रकृति के निर्माण में जिस प्रकार देश के प्राकृतिक रूप-रंग, आचार-व्यवहार