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गद्य-साहित्य का आविर्भाव

उनपर अच्छी तरह प्रकट हो गया था कि उत्तरीय भारत की असली स्वाभाविक भाषा का स्वरूप क्या है। ऐसे अँगरेज विद्वानों में फ्रेडरिक पिन्काट का स्मरण हिंदी-प्रेमियों को सदा बनाए रखना चाहिए। इनका जन्म संवत् १८९३ में इँगलैंड में हुआ। उन्होंने प्रेस के कामों का बहुत अच्छा अनुभव प्राप्त किया और अंत में लंडन की प्रसिद्ध ऐलन ऐंड कंपनी (W. H Allen & Co, 13 Waterloo Place, Pall Mall, S. W.) के विशाल छापखाने के मैनेजर हुए। वहीं वे अपने जीवन के अंतिम दिनों के कुछ पहले तक शांतिपूर्वक रहकर भारतीय साहित्य और भारतीय जनहित के लिये सदा उद्योग करते रहे।

संस्कृत की चर्चा पिन्काट साहब लड़कपन से ही सुनते आते थे, इससे उन्होंने बहुत परिश्रम के साथ उसका अध्ययन किया। इसके उपरांत उन्होंने हिंदी और उर्दू का अभ्यास किया। इँगलैंड में बैठे ही उन्होंने इन दोनों भाषाओं पर ऐसा अधिकार प्राप्त कर लिया कि इनमें लेख और पुस्तकें लिखने और अपने प्रेस में छपाने लगे। यद्यपि उन्होंने उर्दू का भी अच्छा अभ्यास किया था, पर उन्हें इस बात का अच्छी तरह निश्चय हो गया था कि यहाँ की परंपरागत प्रकृत भाषा हिंदी है, अतः जीवन भर ये उसी की सेवा और हित-साधना में तत्पर रहे। उनके हिंदी लेखों, कविताओं और पुस्तकों की चर्चा आगे चलकर भारतेंदु-काल के भीतर की जायगी।

संवत् १९४७ में इन्होंने उपर्युक्त ऐलन कंपनी से संबंध तोड़ा और गिलबर्ट ऐंड रिविंगटन (Gilbert and Rivington, Clerkenwell, London) नामक विख्यात व्यवसाय-कार्यालय में पूर्वीय मंत्री (Oriental Adviser and Expert) नियुक्त हुए। उक्त कंपनी की ओर से एक व्यापारी पत्र "आईनः सौदागरी" उर्दू में निकलता था जिसका संपादन पिन्काट साहब करते थे। उन्होंने उसमें कुछ पृष्ठ हिंदी के लिये भी रखें। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिंदी के लेख वे ही लिखते थे। लेखों के अतिरिक्त हिंदुस्तान में प्रकाशित होनेवाले हिंदी-समाचारपत्रों (जैसे, हिंदोस्तान, आर्य्यदर्पण, भारतमित्र) से उद्धरण भी उस पत्र के हिंदी विभाग में रहते थे।