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गद्य-साहित्य का आविर्भाव

पत्र ईसाई धर्म प्रचार के लिये आगरे (सिकंदरे) से निकलता था जिसकी भाषा शुद्ध हिंदी होती थी। लखनऊ से जो "अवध अखबार" (उर्दू) निकलने लगा था उसके कुछ भाग में हिंदी के लेख भी रहते थे।

जिस प्रकार इधर संयुक्त प्रांत में राजा शिवप्रसाद शिक्षा-विभाग में रहकर हिंदी की किसी न किसी रूप में रक्षा कर रहे थे उसी प्रकार पंजाब में बाबू नवीनचंद्र राय महाशय कर रहे थे। संवत् १९२० और १९३७ के बीच नवीन बाबू ने भिन्न भिन्न विषयों की बहुत सी हिंदी पुस्तके तैयार कीं और दूसरों से तैयार कराईं। ये पुस्तकें बहुत दिनों तक वहाँ कोर्स में रही। पंजाब में स्त्री-शिक्षा का प्रचार करनेवालों में ये मुख्य थे। शिक्षा-प्रचार के साथ साथ समाज-सुधार आदि के उद्योग में भी ये बराबर रहा करते थे। ईसाइयों के प्रभाव को रोकने के लिये किस प्रकार बंगाल में ब्रह्म समाज की स्थापना हुई थी और राजा राममोहन राय ने हिंदी के द्वारा भी उसके प्रचार की व्यवस्था की थी, इसका उल्लेख पहले हो चुका है[१]। नवीनचंद्र ने ब्रह्म-समाज के सिद्धांतों के प्रचार के उद्देश्य से समय समय पर कई पत्रिकाएँ भी निकालीं। संवत् १९२४ (मार्च सन् १८६७) मे उनकी 'ज्ञानप्रदायनी पत्रिका' निकली जिसमें शिक्षा-संबधी तथा साधारण ज्ञान-विज्ञानपूर्ण लेख भी रहा करते थे। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि शिक्षा-विभाग द्वारा जिस हिंदी गद्य के प्रचार में ये सहायक हुए वह शुद्ध हिंदी-गद्य था। हिंदी को उर्दू के झमेले में पड़ने से ये सदा बचाते रहे।

हिंदी की रक्षा के लिये उर्दू के पक्षपातियों से इन्हे उसी प्रकार लड़ना पड़ता था जिस प्रकार यहाँ राजा शिवप्रसाद को। विद्या की उन्नति के लिये लाहौर में 'अंजुमन लाहौर' नाम की एक सभा स्थापित थी। संवत् १९२३ के उसके एक अधिवेशन में किसी सैयद हादी हुसैन खाँ ने एक व्याख्यान देकर उर्दू को ही देश में प्रचलित होने के योग्य कहा। उस सभा की दूसरी बैठक में नवीन बाबू ने खाँ साइब के व्याख्यान का पूरा खंडन करते हुए कहा––

"उर्दू के प्रचलित होने से देशवासियों को कोई लाभ न होगा क्योंकि वह भाषा खास मुसलमानों की है। उसमें मुसलमानों ने व्यर्थ बहुत से अरबी-फारसी के शब्द भर दिए


  1. देखो पृ॰ ४२६-२७ ।