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हिंदी-साहित्य का इतिहास


(बाँह छुड़ाकर तू जाता है, मैं भी वैसे ही जाती हूँ---क्या हर्ज है? हृदयस्थित अर्थात् हृदय से यदि निकले तो मैं जानूँ कि मुंज रूठा है।)

एउ जन्मु नग्गुह गिउ भड़सिरि खग्गु न भग्गु।
तिक्खाँ तुरियँ न साणियाँ, गोरी गली न लग्गु॥


(यह जन्म व्यर्थ गया। न सुभटो के सिर पर खङ्ग टूटा, न तेज घोड़े सजाए, न गोरी या सुंदरी के गले लगा।)

फुटकल रचनाओं के अतिरिक्त वीरगाथाओं की परंपरा के प्रमाण भी अपभ्रँश-मिली भाषा में मिलते हैं।

विद्याधर---इस नाम के एक कवि ने कन्नौज के किसी राठौर सम्राट (शायद जयचंद) के प्रताप और पराक्रम का वर्णन किसी ग्रंथ में किया था। ग्रंथ का पता नही, पर कुछ पद्य 'प्राकृत पिंगल सूत्र' से मिलते हैं, जैसे---

भअ भज्जीअ बंगा भंगु कलिंगा तेलंगा रण मुत्ति चले।
मरहटठा धिट्टा लगिअ कट्टा सोरट्ठा भअ पाअ पले॥
चंपारण कंपा पब्बअ झंपा उत्थी उत्थी जीव हरे।
कासीसर राणा किअउ पआणा, बिज्जाहर भण मंतिवरे॥

यदि विद्याधर को सम-सामयिक कवि माना जाय तो उसका समय विक्रम की १३वीx शताब्दी समझा जा सकता है।

शार्ङ्गधर---इनका आयुर्वेद का ग्रंथ तो प्रसिद्ध ही है। ये अच्छे कवि और सूत्रकार भी थे। इन्होनें 'शार्ङ्गधर पद्धति' के नाम से एक सुभाषित-संग्रह भी बनाया है और अपना परिचय भी दिया है। रणथंभौर के प्रसिद्ध वीर महाराज हम्मीर देव के प्रधान सभासदों में राघवदेव थे। उनके भोपाल, दामोदर और देवदास ये तीन पुत्र हुए। दामोदर के तीन पुत्र हुए---शार्ङ्गधर, लक्ष्मीधर और कृष्ण। हम्मीरदेव संवत् १३५७ में अलाउद्दीन की चढ़ाई में मारे गए थे। अतः शार्ङ्गधर के ग्रंथों का समय उक्त संवत् के कुछ पीछे अर्थात् विक्रम की १४ वीं शताब्दी के अंतिम चरण में मानना चाहिए।

‘शाईधर-पद्धति' में बहुत से शाबर मंत्र और भाषा चित्र-काव्य दिए हैं। जिनमें बीच बीच में देशभाषा के वाक्य आए है। उदाहरण के लिये श्रीमल्लदेव राजा की प्रशंसा में कहा हुआ यह श्लोक देखिए---