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हिंदी-साहित्य का इतिहास

जलंधर के पादरी गोकुलनाथ के व्याख्यानों के प्रभाव से कपूरथला-नरेश महाराज रणधीरसिंह ईसाई मत की ओर झुक रहे थे। पंडित श्रद्धानंद जी तुरंत संवत् १९२० में कपूरथले पहुँचे और उन्होंने महाराज के सब साशयों का समाधान करके प्राचीन वर्णाश्रमधर्म का ऐसा सुंदर निरूपण किया कि सब लोग मुग्ध हो गए। पंजाब के सब छोटे-बड़े स्थानों में धूमकर पंडित श्रद्धाराम जी उपदेश और वक्तृताएँ देते तथा रामायण, महाभारत आदि की कथाएँ सुनाते। उनकी कथाएँ सुनने के लिये बहुत दूर दूर से लोग आते और सहसों आदमियों की भीड़ लगती थी। उनकी वाणी में अद्भुत आकर्षण था और उनकी भाषा बहुत जोरदार होती थी। स्थान स्थान पर उन्होंने धर्मसभाएँ स्थापित कीं और उपदेशक तैयार किए। उन्होंने पंजाबी और उर्दू में भी कुछ पुस्तकें लिखी हैं, पर अपनी मुख्य पुस्तकें हिंदी में ही लिखी हैं। अपना सिद्धांत-ग्रंथ "सत्यामृत प्रवाह" उन्होंने बड़ी प्रौढ़-भाषा में लिखा है। वे बड़े ही स्वतंत्र विचार के मनुष्य थे और वेद-शास्त्र के यथार्थ अभिप्राय को किसी उद्देश्य से छिपाना अनुचित समझते थे। इसी से स्वामी दयानंद की बहुत सी बातों का विरोध वे बराबर करते रहे। यद्यपि वे बहुत सी ऐसी बातें कह और लिख जाते थे जो कट्टर अंधविश्वासियों को खटक जाती थीं और कुछ लोग उन्हें नास्तिक तक कह देते थे पर जब तक वे जीवित रहे, सारे पंजाब के हिंदू उन्हें धर्म का स्तंभ समझते रहे।

पंडित श्रद्धारामजी कुछ पद्यरचना भी करते थे। हिंदी गद्य में तो उन्होंने बहुत कुछ लिखा और वे हिंदी भाषा के प्रचार में बराबर लगे रहे। संवत् १९२८ में उन्होने "आत्म-चिकित्सा" नाम की एक अध्यात्म संबंधी पुस्तक लिखी जिसे संवत् १९२८ में हिंदी में अनुवाद करके छपाया। इसके पीछे 'तत्वदीपक', 'धर्मरक्षा', 'उपदेश-संग्रह (व्याख्यानों का संग्रह)', 'शतोपदेश' (दोहे) इत्यादि धर्म संबंधी पुस्तकों के अतिरिक्त उन्होंने अपना एक बड़ा जीवनचरित (१४०० पृष्ठ के लगभग) लिखा था जो कहीं खो गया। "भाग्यवती" नाम का एक सामाजिक उपन्यास भी संवत् १९३४ में उन्होंने लिखा, जिसकी बड़ी प्रशंसा हुई।

अपने समय के वे एक सच्चे हिंदी-हितैषी और सिद्धहस्त लेखक थे। संवत्