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हिंदी-साहित्य का इतिहास

में उनकी लेखनी सदी तत्पर रहतीं थी।' भाषा उनकी चरपरी, तीखी और चमत्कारपूर्ण होती थी।

ठाकुर जगमोहनसिंह की शैली शब्द-शोधन और अनुप्रास की प्रवृत्ति के कारण चौधरी बदरीनारायण की शैली से मिलती जुलती है पर उसमें लंबे लंबे वाक्यों की जटिलता नहीं पाई जाती। इसके अतिरिक्त उनकी भाषा में जीवन की मधुर भारतीय रंग-स्थलियो को मार्मिक ढंग से हृदय में जमानेवाले प्यारे शब्दों का चयन अपनी अलग विशेषता रखता है।

हरिश्चंद्र-काल के सब लेखकों में अपनी भाषा की प्रकृति की पूरी परख थी। संस्कृत के ऐसे शब्दों और रूपों का व्यवहार वे करते थे जो शिष्ट समाज के बीच प्रचलित चले आते है। जिन शब्दों या उनके जिन रूप से केवल संस्कृताभ्यासी ही परिचित होते हैं और जो भाषा के प्रवाह के साथ ठीक चलते नहीं, उनका प्रयोग वे बहुत औचट में पड़कर ही करते थे। उनकी लिखावट में न 'उड्डीयमान' और 'अवसाद' ऐसे शब्द मिलते है, 'औदार्य्य', 'सौकर्य्य' और 'मौर्ख्य' ऐसे रूप।

भारतेंदु के समय में ही देश के कोने कोने में हिंदी-लेखक तैयार हुए जो उनके निधन के उपरांत भी बराबर साहित्य-सेवा में लगे रहा। अपने अपने विषय-क्षेत्र के अनुकूल रूप हिंदी को देने में सबका हाथ रहा। धर्म-संबंधी विषयों पर लिखनेवालों (जैसे, पं॰ अंबिकादत्त व्यास) ने शास्त्रीय विषयों को व्यक्त करने में, संवादपत्रों ने राजनीतिक बातों को सफाई के साथ सामने रखने में हिंदी को लगाया। सारांश यह कि उस काल में हिंदी का शुद्ध साहित्योपयोगी रूप ही नही, व्यवहारोपयोगी रूप भी निखरा।

यहाँ तक तो भाषा और शैली की बात हुई। अब लेखकों का दृष्टि-क्षेत्र और उनका मानसिक अवस्थान ली लिजिए। हरिश्चंद्र तथा उनके सम-सामयिक लेखको में जो एक सामान्य गुण लक्षित होता है, वह है सजीवता या जिदःदिली। सब में हास्य या विनोद की मात्रा थोड़ी या बहुत पाई जाती है। राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मणसिंह भाषा पर अधिकार रखनेवाले पर झंझटों से दवे हुए स्थिर प्रकृति के लेखक थे। उनमें वह चपलता, स्वच्छंदता और उमंग