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सामान्य परिचय


बिखरे मिलेंगे। पर शैली की व्यक्तिगत विशेषताएँ थोड़ी बहुत सब, लेखकों में पाई जायँगी।

जैसा कि कहा जा चुका है हास्य-विनोद की प्रवृत्ति इस काल के प्रायः सब लेखको में थी। प्राचीन और नवीन के संघर्ष के कारण उन्हे हास्य के आलं-बन दोनो पक्षों में मिलते थे। जिस प्रकार बात बात में बाप-दादों की दुहाई देनेवाले, धर्म आडम्बर की आड़ मे दुराचार छिपानेवाले पुराने खूसट उनके विनोद के लक्ष्य थे, उसी प्रकार पच्छिमी चाल-ढाल की ओर मुंह के बल गिरने-वाले फैशन के गुलाम भी।

नाटकों और निबंधो की ओर विशेष झुकाव रहने पर भी बंगभाषा की देखा-देखी नए ढंग के उपन्यासों की ओर भी ध्यान जा चुका था। अँगरेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले-पहल हिंदी में लाला श्रीनिवासदास का 'परीक्षा-गुरु' ही निकला था। उसके पीछे बा० राधाकृष्णदास ने 'निस्सहाय हिंदू' और पं० बालकृष्ण भट्ट ने 'नूतन ब्रह्मचारी' तथा 'सौ अजान और एक सुजान' नामक छोटे छोटे उपन्यास लिखे| उस समय तक बंगभाषा में बहुत से अच्छे उपन्यास निकल चुके थे। अतः साहित्य के इस विभाग की शून्यता शीघ्र हटाने के लिये उनके अनुवाद आवश्यक प्रतीत हुए। हरिश्चंद्र ने ही अपने पिछले जीवन में बंगभाषा के उपन्यास के अनुवाद में हाथ लगाया था, पर पूरा न कर सके थे| पर उनके समय में ही प्रतापनारायण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी ने कई उपन्यासों के अनुवाद किए। तदनंतर बा० गदाधरसिंह ने बग-विजेता और दुर्गेशनंदिनी का अनुवाद किया। संस्कृत की कादबरी की कथा भी उन्होंने बँगला के आधार पर लिखी। पीछे तो बा० राधाकृष्णदास, बा० कार्तिकप्रसाद खत्री, बा० रामकृण वर्मा आदि ने बँगला के उपन्यासों के अनुवाद की जो परंपरा चलाई वह बहुत दिनों तक चलती रही। इन उपन्यासों में देश के सर्व-सामान्य जीवन के बड़े मार्मिक चित्र रहते थे।

प्रथम उत्थान के अत होते होते तो अनूदित उपन्यासों का ताँता बँध गया। पर पिछले अनुवादको को अपनी भाषा पर वैसा अधिकार न था। अधिकांश अनुवादक प्रायः भाषा को ठीक हिंदी रूप देने में असमर्थ रहे। कहीं कहीं तो