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हिंदी-साहित्य का इतिहास

और मैटर को बड़े ढंग से सजाते थे। हिंदी गद्य-साहित्य के इस आरंभ काल में ध्यान देने की बात यह है कि इस समय जो थोड़े से गिनती के लेखक थे उनमें विदग्धता और मौलिकता थी और उनकी हिंदी हिंदी होती थी। वे अपनी भाषा की प्रकृति को पहचाननेवाले थे। बँगला, मराठी, उर्दू, अँगरेजी के अनुवाद का वह तूफान जो पचीस तीस वर्ष पीछे चला और जिसके कारण हिंदी का स्वरूप ही संकट में पड़ गया था, उस समय नहीं था। उस समय ऐसे लेखक न थे जो बँगला की पदावली और वाक्य ज्यों के त्यों रखते हों या अँगरेजी वाक्यों और मुहावरों का शब्द प्रतिशब्द अनुवाद करके हिंदी लिखने का दावा करते हों। उस समय की हिंदी में न 'दिक् दिक् अशांति' थी, न 'काँदना, सिहरना और छल छल अश्रुपात'; न 'जीवन होड़' और 'कवि का संदेश' था न "भाग लेना" और "स्वार्थ लेना"।

मैगजीन में प्रकाशित हरिश्चंद्र का "पाँचवें पैगंबर", मुंशी ज्वालाप्रसाद का "कलिराज की सभा" बाबू तोताराम का "अद्भुत अपूर्व स्वप्न", बाबू कार्त्तिकप्रसाद का 'रेल का विकट खेल" आदि लेख बहुत दिनों तक लोग बड़े चाव से पढ़ते थे। संवत् १९३१ में भारतेंदुजी ने स्त्रीशिक्षा के लिये "बालाबोधिनी" निकाली थी। इस प्रकार उन्होंने तीन पत्रिकाएँ निकालीं। इसके पहले ही संवत् १९३० में उन्होंने अपना पहला मौलिक नाटक 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' नाम का प्रहसन लिखा, जिसमें धर्म और उपासना के नाम से समाज में प्रचलित अनेक अनाचारों का जघन्य रूप दिखाते हुए उन्होंने राजा शिवप्रसाद को लक्ष्य करके खुशामदियों और केवल अपनी मानवृद्धि की फिक्र मे रहनेवालों पर भी छींटे छोड़े। भारत के प्रेम में मतवाले देशहित की चिंता में व्यग्र, हरिश्चंद्र जी पर सरकार की जो कुदृष्टि हो गई थी उसके कारण बहुत कुछ राजा साहब ही समझे जाते थे।

गद्य-रचना के अंतर्गत भारतेंदु का ध्यान पहले नाटकों की ओर ही गया। अपनी 'नाटक' नाम की पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि हिंदी मे नाटक उनके पहले दो ही लिखे गए थे-महाराज विश्वनाथसिंह का "आनंद रघुनंदननाटक" और बाबू गोपालचंद का "नहुष नाटक"। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये दोनों ब्रजभाषा में थे। भारतेंदु-प्रणीत नाटक ये हैं-