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हिंदी-साहित्य का इतिहास


पदावली का कुछ अधिक समावेश होता है। इसका सब से बढ़ा चढ़ा उदाहरण 'नीलदेवी' के वक्तव्य में मिलता है। देखिए––

"आज बड़ा दिन है, क्रिस्तान लोगों को इससे बढ़कर कोई आनंद का दिन नहीं है। किंतु मुझको आज उलटा और दुख है। इसका कारण मनुष्य-स्वभाव-सुलभ ईर्षा मात्र हैं। मैं कोई सिद्ध नहीं कि राग-द्वेष से विहीन हूँ। जब मुझे अँगरेजी रमणी लोग मेदसिंचित केशराशि, कृत्रिम कुंतलजूट, मिथ्या रत्नाभरण, विविध-वर्ण वसन से भूषित, क्षीण कटिदेश कसे, निज निज पतिगण के साथ प्रसन्नवदन इधर से उधर फर फर कल की पुतली की भाँति फिरती हुई दिखाई पड़ती हैं तब इस देश की सीधी सादी स्त्रियों की हीन अवस्था मुझको स्मरण आती है और यही बात मेरे दुःख का कारण होती है"।

पर यह भारतेंदु की असली भाषा नहीं। उनकी असली भाषा का रूप पहले दो अवतरणों में ही समझना चाहिए। भाषा चाहे जिस ढंग की हो उनके वाक्यों का अन्वय सरल होता है, उसमें जटिलता नहीं होती है उनके लेखों में भावों की मार्मिकता पाई जाती हैं, वाग्वैचित्र्य या चमत्कार की प्रवृत्ति नही।

यह स्मरण रखना चाहिए कि अपने समय के सब लेखको में भारतेंदु की भाषा साफ सुथरी और व्यवस्थित होती थी। उसमें शब्दों के रूप भी एक प्रणाली पर मिलते है और वाक्य भी सुसंबद्ध पाए जाते है। 'प्रेमघन' आदि और लेखकों की भाषा में हम क्रमशः उन्नति और सुधार पाते हैं। सं॰ १९३८ की 'आनंदकादंबिनी' का कोई लेख लेकर १० वर्ष पश्चात् के किसी लेख से मिलान किया जाये तो बहुत अंतर दिखाई पड़ेगा। भारतेंदु के लेखों में इतना अंतर नहीं पाया जाता। 'इच्छा किया', 'आज्ञा किया' ऐसे व्याकरण-विरुद्ध प्रयोग अवश्य कहीं कहीं मिलते है।


प्रतापनारायण मिश्र के पिता उन्नाव से आकर कानपुर में बस गए थे, जहाँ प्रतापनारायणजी का जन्म सं॰ १९१३ मे और मृत्यु सं॰ १९५१ में हुई है। ये इतने मनमौजी थे कि आधुनिक सभ्यता और शिष्टता की कम परवा करते थे। कभी लावनीबाजों में जाकर शामिल हो जाते थे, कभी मेलो और तमाशो में बंद इक्के पर बैठे जाते दिखाई देते थे।

प्रतापनारायण मिश्र यद्यपि लेखन-कला में भारतेंदु को ही आदर्श मानते