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हिंदी-साहित्य का इतिहास

( दृढ़ सन्नाह पहले, वाहनों के ऊपर पक्खरे डाली। बंधु बांधवो से विदा लेकर रण में धंसा हम्मीर साहि का वचन लेकर । तारो को नभपथ में फिराउँ, तलवार शत्रु के सिर पर ज़डे, पाखर' से पाखर ठेल पेल चार पर्वतों को हिला डाले । जज्जल कहता है, कि हम्मीर के कार्य के लिये मै क्रोध से जल रहा हूँ । सुलतान के सिर पर खङ्ग देकर शरीर छोड़ मैं स्वर्ग को जाऊँ । )

पअमर दरमरु धरणि तरणि-रह धुल्लिअ ।
कमठ पिठु टरपरिअ,मेरू मंदर सिर कंपिअ ।।
कोहे चलिअ हम्मीर- बीर गअनुह, संजुत्ते ।
किअउ कट्ट, हा कद ! मुच्छि मेच्छिम के पुत्ते ।

( चरणों के भार से पृथ्वी दलमल उठी । सूर्य का रथ धूल से ढक गया । कमठ की पीठ तड़फड़ा उठी , मेरु मंदर की चोटियाँ कंपित हुई । गजयूथ के साथ वीर हम्मीर क्रुद्ध होकर चले । म्लेच्छों के पुत्र हा कष्ट ! करके रो उठे और मूच्छित हो गए। )

अपभ्रंश की रचनाओ की परम्परा यही समाप्त होती है। यद्यपि पचास साठ वर्षं पीछे विद्यापति ( संवत् १४६० से वर्तमान ) ने बीच बीच में देशभाषा के भी कुछ पद्य रखकर अपभ्रंश मे दो छोटी छोटी पुस्तकें लिखीं, पर उस समय तक अपभ्रंश का स्थान देवभाषा ले चुकी थी। प्रसिद्ध भाषातत्त्वविद् सर जार्ज ग्रियर्सन जब विद्यापति के पदो का संग्रह कर रहे थे उस समय उन्हें पता लगा था कि 'कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका' नाम की प्रशस्ति-संबधी दो पुस्तके भी उनकी लिखी है । पर उस समय इनमे से किसी का पता न चला। थोडे दिन हुए, महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शास्त्री नैपाल, गए थे । वहाँ राजकीय पुस्तकालय मे “कीर्तिलता’ की एक प्रति मिली जिसकी नकल उन्होने ली ।

इस पुस्तक में तिरहुत के राजा कीर्तिसिंह की वीरता, उदारता, गुणग्राहकता आदि का वर्णन, बीच बीच में कुछ देशभाषा के भी पद्य रखते हुए, अपभ्रंश भाषा के दोहा, चौपाई, छप्पय; छंद, गाथा आदि छंदो में किया गया है । इस अपभ्रंश की विशेषता यह है कि, यह पूरवी अपभ्रंश है । इसमे क्रियाओ आदि के बहुत से रूप पूरबी हैं । नमूने के लिये एक उदाहरण लीजिए-