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हिंदी-साहित्य का इतिहास

कहने लगे "देखिए परोपकार की इच्छा अत्यंत उपकारी है परंतु हद से आगे बढ़ने पर वह भी फिजूलखर्ची समझी जायगी और अपने कुटुंब परिवारादि का सुख नष्ट हो जायगा। जो आलसी अथवा अधर्मियों की सहायता की, तो उससे संसार में अलस्य और पाप की वृद्धि होगी। इसी तरह कुपात्र में भक्ति होने से लोक परलोक दोनों नष्ट हो जायँगे। न्यायपरता यद्यपि सब वृत्तियों को समान रखनेवाली है, परंतु इसकी अधिकता से भी मनुष्य के स्वभाव में मिलनसारी नहीं रहती, क्षमा नहीं रहती। जब बुद्धिवृत्ति के कारण किसी वस्तु के विचार में मन अत्यंत लग जायगा तो और जानने लायक पदार्थों की अज्ञानता बनी रहेगी। आनुषांगिक प्रवृत्ति के प्रबल होने से जैसा संग होगा वैसा रंग तुरंत लग जाया करेगा।"

ऊपर उद्धरण में अँगरेजी उपन्यासों के ढंग पर भाषण के बीच में या अत में "अमुक ने कहा", "अमुक कहने लगे" ध्यान देने योग्य है। खैरियत हुई कि इस प्रथा का अनुसरण हिंदी के उपन्यासों में नहीं हुआ।

भारतेंदुजी के मित्रों में कई बातों में उन्हीं की-सी तबीयत रखनेवाले विजयराघवगढ़ (मध्य प्रदेश) के राजकुमार ठाकुर जगमोहनसिंह थे। उनका जन्म श्रावण शुक्ल १४ सं॰ १९१४ को और मृत्यु सं॰ १९५६ (मार्च सन् १८९९) में हुई। वे शिक्षा के लिये कुछ दिन काशी में रखे गए थे जहाँ उनका भारतेंदु के साथ मेल-जोल हुआ। वे संस्कृत साहित्य और अँगरेजी के अच्छे जानकार तथा हिंदी के एक प्रेम-पथिक कवि और माधुर्यपूर्ण गद्य लेखक थे। प्राचीन संस्कृत-साहित्य के अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास के कारण विविध-भावमयी प्रकृति के रूप-माधुर्य की जैसी सच्ची परख, जैसी सच्ची अनुभूति, उनमे थी वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती। अब तक जिन लेखकों की चर्चा हुई उनके हृदय में इस भूखंड की रूपमाधुरी के प्रति कोई सच्चा प्रेम-संस्कार न था। परंपरा पालन के लिये चाहे प्रकृति का वर्णन उन्होंने किया हो पर वहाँ उनका हृदय नहीं मिलता। अपने हृदय पर अंकित भारतीय ग्राम्य जीवन के माधुर्य का जो संस्कार ठाकुर साहब ने अपने "श्यामा-स्वप्न" में व्यक्त किया है। उसकी सरसता निराली है। बाबू हरिश्चंद्र, पंडित प्रतापनारायण आदि कवियों