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अपभ्रंश काल

रज्ज-लुद्ध असलान बुद्धि बिक्कम बले हारल ।
पास बइसि बिसवासि राय गयनेसर मारल ।।
मारंत राय रणरोल पडु, मेइनिं हा हा सद्द हुअ ।
सुरराय नयर नरअर-रमणि बाम नयन पप्फुरिअ धुअ ।।

दूसरी विशेषता विद्यापति के अपभ्रंश की यह है कि वह प्रायः देशभाषा कुछ अधिक लिए हुए है और उसमे तत्सम संस्कृत शब्दों का वैसा बहिष्कार नहीं है । तात्पर्य यह है कि वह प्राकृत की रूड़ियो से उतनी बँधी नही हैं । उसमे जैसे इस प्रकार की टकसाली अपभ्रंश है-

पुरिसत्तेण पुरिसउ, नहिं पुरिसर जम्म मत्तेन ।
जलेदानेन हु जलओ, न हु जलओ पुजिओ धूमो ।।

वैसे ही इस प्रकार की देशभाषा या बोली भी है-

कतहुँ तुरुक बरकर । बार जाए ते बेगार धर ।।
धरि आनय बाभन बरुआ । मथा चढ़ावइ गाय का चुरुआ ।।
हिंदू बोले दूरहि निकार। छोटउ -तुरुको भभकी मार ॥


अपभ्रंश की कविताओं के जो नए-पुराने नमूने अब तक दिए जा चुके हैं। उनसे इस बात का ठीक अनुमान हो सकता है कि काव्य-भाषा प्राकृत की रूढ़ियों से कितनी बँधी हुई चलती रही । बोलचाल तक के तत्सम संस्कृत शब्दो का पूरा बहिष्कार उसमें पाया जाता है। उपकार’, ‘नगर’, ‘विद्या', 'वचन' ऐसे प्रचलित शब्द भी ‘उअर', 'नअर', 'बिजा’, ‘बअण’ बनाकर ही रखे जाते थे। ‘जासु', 'तासु', ऐसे रूप बोलचाल से उठ जाने पर भी पोथियों में बराबर चलते रहे । विशेषण विशेष्य के बीच विभक्तियों का समानाधिकरण अपभ्रंश काल में कृदंत विशेषणों से बहुत कुछ उठ चुका था, पर प्राकृत की परंपरा के अनुसार अपभ्रंश की कविताओं में कृदंत विशेषणों में मिलता हैं-जैसे, “जुब्बण गेयु न झुरि - गए को यौवन को न झुर - गए यौवन को न पछता । जब ऐसे उदाहरण के साथ हम ऐसे उदाहरण भी पाते है जिनमें विभक्तियों का ऐसा समानाधिकरण नहीं है तब यह निश्चय हो जाता है कि उसका सन्निवेश पुरानी परंपरा का पालन मात्र है । इस परंपरा-पालन का