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हिंदी-साहित्य का इतिहास

में हुई। ये संस्कृत के प्रतिभाशाली विद्वान्, हिंदी के अच्छे कवि और सनातन धर्म के बड़े उत्साही उपदेशक थे। इनके धर्म-संबंधी व्याख्यानों की धूम रहा करती थी। "अवतार-मीमांसा" आदि धर्म-संबंधी पुस्तकों के अतिरिक्त इन्होंने बिहारी के दोहों के भाव को विस्तृत करने के लिये "बिहारी-विहार" नाम का एक बड़ा काव्य-ग्रंथ लिखा। पद्य-रचना का भी विवेचन इन्होंने अच्छा किया हैं। पुरानी चाल की कविता (जैसे, पावस-पचासा) के अतिरिक्त इन्होंने 'गद्य-काव्य मीमांसा' आदि अनेक गद्य की पुस्तकें भी लिखीं। 'इन्होंने', 'उन्होंने' के स्थान पर ये 'इनने', 'उनने' लिखते थे।

ब्रजभाषा की अच्छी कविता ये बाल्यावस्था से ही करते थे जिससे बहुत शीघ्र रचना करने का इन्हे अभ्यास हुआ। कृष्णलीला को लेकर इन्होंने ब्रजभाषा में 'ललिता नाटिका' लिखी थी। भारतेंदु के कहने से इन्होंने 'गो-संकट नाटक' लिखा जिसमे हिंदुओं के बीच असंतोष फैलने पर अकबर द्वारा गोवध बंद किए जाने की कथावस्तु रखी गई है।

पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या––इन्होंने गिरती दशा में "हरिश्चंद्रचंद्रिका" को सँभाला था और उसमें अपना नाम भी जोड़ा था। इनके रंग ढंग से लोग इन्हें इतिहास का अच्छा जानकर और विद्वान् समझते थे। कविराजा श्यामलदानजी ने जब अपने "पृथ्वीराज-चरित्र" ग्रंथ में "पृथ्वीराजरासो" को जाली ठहराया था तब इन्होंने "रासो-संरक्षा" लिखकर उसको असल सिद्ध करने का प्रयत्न किया था।

पंडित भीमसेन शर्मा––ये पहले स्वामी दयानंदजी के दहने हाथ थे। संवत् १९४० और १९४२ के बीच इन्होंने धर्म-संबंधी कई पुस्तके हिंदी में लिखीं और कई संस्कृत ग्रंथों के हिंदी भाष्य भी निकाले। इन्होंने "आर्य सिद्धांत" नामक एक मासिक पत्र भी निकाला था। भाषा के संबंध में इनका विलक्षण मत था। "संस्कृत भाषा की अद्भुत शक्ति" नाम का एक लेख लिखकर इन्होंने अरबी फारसी शब्दों को भी संस्कृत बना डालने की राय बड़े जोर शोर से दी थी––जैसे दुश्मन को "दुःशमन" सिफारिश को "क्षिप्राशिष", चश्मा को "चक्ष्मा", शिकायत को "शिक्षायत्र" इत्यादि।