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हिंदी-साहित्य का इतिहास

नामक एक छोटा सा रूपक लिखा था जो 'हरिश्चंद्र-चंद्रिका' और 'मोहन चंद्रिका' में प्रकाशित हुआ था। इसमें जन्मपत्री-मिलान, बालविवाह, अपव्यय आदि कुरीतियों का दुष्परिणाम दिखाया गया है। इनका दूसरा नाटक है 'महारानी पद्मावती अथवा मेवाड़-कमलिनी' जिसकी रचना चित्तौड़ पर अलाउद्दीन की चढ़ाई के समय की पद्मिनी-वाली घटना को लेकर हुई है। इनका सबसे उत्कृष्ट और बड़ा नाटक 'महाराणा प्रताप' (या-राजस्थान केसरी) है, जो सं॰ १९५४ में समाप्त हुआ था। यह नाटक बहुत ही लोकप्रिय हुआ और इसको अभिनय कई बार कई जगह हुआ।

भारतीय प्रथा के अनुसार इसके सब पात्र भी आदर्श के साँचो में ढले हुए हैं। कथोपकथन यद्यपि चमत्कारपूर्ण नहीं, पर पात्र और अवसर के सर्वथा उपयुक्त है; उनमें कहीं कहीं ओज भी पूरा है। वस्तु योजना बहुत ही व्यवस्थित है। इस नाटक में अकबर का हिंदुओं के प्रति सद्भाव उसकी कुटनीति के रूप में प्रदर्शित है। यह बात चाहे कुछ लोगो को पसंद न हो।

नाटकों के अतिरिक्त इन्होंने "निस्सहाय हिंदू" नामक एक छोटा सा उपन्यास भी लिखा था। बँगला, के कई उपन्यासों के अनुवाद इन्होंने किए हैं––जैसे रवर्णलता, मरता क्या न मरता।

कार्तिकप्रसाद खत्री––(जन्म सं॰ १९०८, मृत्यु १९६१) ये आसाम, बँगाल आदि कई स्थानों में रहे। हिंदी का प्रेम इनमें इतना अधिक था, कि २० वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने कलकत्ते से हिंदी की पत्र-पत्रिकाएँ निकालने का उद्योग किया था। इनका "रेल का विकट-खेल" नाम का एक नाटक १५ अप्रैल सन् १८७४ ई॰ की संख्या से 'हरिश्चंद्र मैगजीन' में छपने लगा था, पर पूरा न हुआ। 'इला', 'प्रमीला', 'जया', 'मधुमालती' इत्यादि अनेक बँगला उपन्यासों के इनके किए हुए अनुवाद काशी के 'भारत जीवन' प्रेस से निकले।

फ्रेडरिक पिन्काट का उल्लेख पहले हो चुका है और यह कहा जा चुका है कि वे इँगलैंड में बैठे बैठे हिंदी में लेख और पुस्तकें लिखते और हिंदी लेखकों के साथ पत्रव्यवहार भी हिंदी में ही करते थे। उन्होंने दो पुस्तकें हिंदी में लिखी है––