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गद्य-साहित्य परपरा का प्रवर्त्तन

'परमाल रासो' आदि पुराने ऐतिहासिक काव्यो को प्रकाशित करने के अतिरिक्त तुलसी, जायसी,भूषण, देव ऐसे प्रसिद्ध कवियों की ग्रंथावलियों के भी बहुत सुंदर संस्करण सभा ने निकाले है। "मनोरंजन पुस्तक-माला" में ५० से ऊपर भिन्न भिन्न विषयों पर उपयोगी पुस्तकें निकल चुकी है। हिंदी का सबसे बड़ा और प्रामाणिक व्याकरण तथा कोश (हिंदी शब्दसागर) इस सभा के चिरस्थायी कार्यों में गिने जायँगे।

इस सभा ने अपने ३५ बर्ष के जीवन में हिंदी-साहित्य के "वर्तमान काल" की तीनों अवस्थाएँ देखी हैं[१]। जिस समय यह स्थापित हुई थी उस समय भारतेंदु द्वारा प्रवर्तित प्रथम उत्थान की ही परंपरा चली आ रही थी। वह प्रचार काल था। नागरी अक्षरों और हिंदी-साहित्य के प्रचार के मार्ग में बड़ी बाधाएँ थी। 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका' की प्रारंभिक संख्याओं को यदि हम निकाल कर देखे तो उनमें अनेक विषयों के लेखों के अतिरिक्त कहीं कहीं ऐसी कविताएँ भी मिल जायँगी जैसी श्रीयुत महावीरप्रसाद द्विवेदी की "नागरी ने यह दशा!"

नूतन हिंदी-साहित्य का वह प्रथम उत्थान कैसा हँसता-खेलता सामने आया था, भारतेंदु के सहयोगी लेखकों का वह मंडल किस जोश और जिदःदिली के साथ और कैसी चहल पहल के बीच अपना काम कर गया, इसका उल्लेख हो चुका है। सभा की स्थापना के पीछे घर सँभालने की चिंता और व्यग्रता के से कुछ चिह्न हिंदी-सेवक-मंडल के बीच दिखाई पडने लगे थे। भारतेंदु जी के सहयोगी अपने ढर्रे पर कुछ न कुछ लिखते तो जा रहे थे, पर उनमें वह तत्परता और वह उत्साह नहीं रह गया था। बाबू हरिश्चंद्र के गोलोकवास के कुछ आगे-पीछे जिन लोगों ने साहित्य-सेवा ग्रहण की थी वे ही अब प्रौढ़ता प्राप्त करके काल की गति परखते हुए अपने कार्य में तत्पर दिखाई देते थे। उनके अतिरिक्त कुछ नए लोग भी मैदान में धीरे धीरे उतर रहे थे। यह नवीन हिंदी साहित्य का द्वितीय उत्थान था जिसके आरंभ में 'सरस्वती' पत्रिका के दर्शन हुए।



  1. संवत् १९७५ तक।