पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/५१३

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प्रकरण ३
गद्य-साहित्य का प्रसार
द्वितीय स्थान
१९५०––१९५५
सामान्य परिचय

इस उत्थान का आरंभ हम संवत् १९५० से मान सकते हैं। इसमें हम कुछ ऐसी चिंताओं और आकांक्षाओं का आभास पाते हैं, जिनका समय भारतेंदु के सामने नहीं आया था। भारतेंदु-मंडल मनोरंजक साहित्य-निर्माण द्वारा हिंदी-गद्य-साहित्य की स्वतंत्र सत्ता का भाव ही प्रतिष्ठित करने में अधिकतर लगा रहा। अब यह भाव पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो गया था। और शिक्षित समाज को अपने इस नए गद्य-साहित्य का बहुत कुछ परिचय भी हो गया था। प्रथम उत्थान के भीतर बहुत बड़ी शिकायत यह रहा करती थी कि अँगरेजी की ऊँची शिक्षा पाए हुए बड़े बड़े डिग्रीधारी लोग हिंदी-साहित्य के नूतन निर्माण में योग नहीं देते और अपनी मातृभाषा से उदासीन रहते हैं। द्वितीय उत्थान में यह शिकायत बहुत कुछ कम हुई। उच्च शिक्षा प्राप्त लोग धीरे धीरे आने लगे––पर अधिकतर यह कहते हुए कि "मुझे तो हिंदी आती नहीं"। इधर से जवाब मिलता था "तो क्या हुआ? आ न जायगी। कुछ काम तो शुरू कीजिए।" अतः बहुत से लोगों ने हिंदी आने के पहले ही काम शुरू कर दिया। उनकी भाषा में जो दोष रहते थे, वे उनकी खातिर से दर गुजर कर दिए जाते थे। जब वे कुछ काम कर चुकते थे––दो चार चीजें लिख चुकते थे––तब तो पूरे लेखक हो जाते थे। फिर उन्हें हिंदी आने न आने की परवा क्यों होने लगी?

इस काल-खंड के बीच हिंदी लेखकों की तारीफ में प्रायः यही कहा-सुना जाता रहा कि ये संस्कृत बहुत अच्छी जानते हैं, वे अरबी-फारसी के पूरे विद्वान् हैं, ये अँगरेजी के अच्छे पंडित् हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी कि ये हिंदी बहुत अच्छी जानते हैं। यह मालूम ही नहीं होता था कि