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गद्य-साहित्य का प्रसार

अधिकार रखनेवाले कुछ लेखकों की कृपा से हिंदी की अर्थोद्घाटीनी शक्ति की अच्छी वृद्वि और अभिव्यंजन-प्रणाली का भी अच्छा प्रसार हुआ। सधन और गुफित विचारसूत्रो को व्यक्त करनेवाली तथा सूक्ष्म और गूढ़ भावों को झलकानेवाली भाषा हिंदी-साहित्य को कुछ कुछ प्राप्त होने लगी। उसी के अनुरूप हमारे साहित्य का डौल भी बहुत कुछ ऊँचा हुआ। बँगला के उत्कृष्ट सामाजिक, पारिवारिक और ऐतिहासिक उपन्यासों के लगातार आते रहने से रुचि परिष्कृत होती रही, जिससे कुछ दिनों की तिलस्म, ऐयारी और जासूसी के उपरांत उच्च कोटि के सच्चे साहित्यिक उपन्यासों की मौलिक रचना का दिन भी ईश्वर ने दिखाया।

नाटक के क्षेत्र में वैसी उन्नति नहीं दिखाई पड़ी। बाबू राधाकृष्णदास के "महाराणा प्रताप" (या राजस्थान केसरी) की कुछ दिन धूम रही और उसका अभिनय भी बहुत बार हुआ। राय देवीप्रसादजी पूर्ण ने "चंद्रकलाभानुकुमार" नामक एक बहुत बड़े डीलडौल का नाटक लिखा पर वह साहित्य के विविध अंगों से पूर्ण होने पर भी वस्तु-वैचित्य के अभाव तथा भाषणों की कृत्रिमता आदि के कारण उतना प्रसिद्ध न हो सका। बँगला के नाटकों के कुछ अनुवाद बाबू रामकृष्ण वर्मा के बाद भी होते रहे पर उतनी अधिकता में नहीं जितनी अधिकता से उपन्यासों के। इससे नाटक की गति बहुत मंद रही। हिंदी-प्रेमियों के उत्साह से स्थापित प्रयाग और काशी की नाटक-मंडलीयों (जैसे, भारतेंदु नाटक-मंडली) के लिये रंगशाला के अनुकूल दो एक छोटे मोटे नाटक अवश्य लिखे गए पर वे साहित्यिक प्रसिद्धि न पा सके। प्रयाग में पंडित माधव शुक्लजी और काशी में पंडित दुगवेकरजी अपनी रचनाओं और अनूठे अभिनयों द्वारा बहुत दिनों तक दृश्य काव्य की रुचि जगाए रहे। इसके उपरांत बँगला में श्री द्विजेंद्रलाल राय के नाटको की धूम हुई और उनके अनुवाद हिंदी में धड़ाधड़ हुए। इसी प्रकार रवींद्र बाबू के कुछ नाटक भी हिंदी रूप में लाए गए। द्वितीय उत्थान के अंत में दृश्य-काव्य की अवस्था यही रही।

निबधों की शोर यद्यपि बहुत कम ध्यान दिया गया और उसकी परंपरा ऐसी न चली कि हम ५–७ उच्च कोटि के निबंध-लेखकों को उसी प्रकार झट