पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

प्रकरण ३

देशभाषा काव्य

वीरगाथा

पहले कहा जा चुका है कि प्राकृत की रूढ़ियों से बहुत कुछ मुक्त भाषा के जो पुराने काव्य-जैसे, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो-आजकल मिलते हैं वे संदिग्ध हैं। इसी संदिग्ध सामग्री को लेकर जो थोड़ा बहुत विचार हो सकता है, उस पर हमें संतोष करना पड़ता है।

इतना अनुमान तो किया ही जा सकता है कि प्राकृत पढ़े पंडित ही उस समय कविता नहीं करते थे। जनसाधारण की बोली में गीत दोहे आदि प्रचलित चले आते रहे होंगे जिन्हें पंडित लोग गंवारू समझते रहे होंगे। ऐसी कविताएँ राजसभाओं तक भी पहुंच जाती रही होगी। 'राजा भोज जस मूसरचंद' कहने वालों के सिवा देशभाषा मे सुंदर भाव भरी कविता कहने वाले भी अवश्य ही रहे होंगे। राजसभाओं में सुनाए जानेवाले नीति, श्रृंगार आदि विप्रय प्रायः दोहो मे कहे जाते थे और वीररस के पद्य छप्पय में । राजाश्रित कवि अपने राजाओं के शौर्य, पराक्रम और प्रताप का वर्णन अनूठी उक्तियों के साथ किया करते थे और अपनी वीरोल्लासभरी कविताओं से वीरों को उत्साहित किया करते थे। ऐसे राजाश्रित कवियों की रचनाओं के रक्षित रहने का अधिक सुबीता था । वे राजकीय पुस्तकालयों में भी रक्षित रहती थी और भट्ट चारण जीविका के विचार से उन्हें अपने उत्तराधिकारियों के पास भी छोड़ जाते थे । उत्तरोत्तर भट्ट चारणों की परंपरा में चलते रहने से उनमें फेरफार भी बहुत कुछ होता रहा । इसी रक्षित परंपरा की सामग्री हमारे हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल में मिलती है। इसी से यह काल 'वीरगाथा-काल' कहा गया ।

भारत के इतिहास में यह वह समय था जब कि मुसलमानों के हमले उत्तर पश्चिम की ओर से लगातार होते रहते थे। इनके धक्के अधिकतर भारत