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गद्य-साहित्य का प्रसार

संवत् १९७० में पंडित सत्यनारायण कविरत्न ने भवभूति के 'उत्तर राम-चरित' का और पीछे 'मालतीमाधव' का अनुवाद किया। कविरत्न के ये दोनों अनुवाद बहुत ही सरस हुए जिनमें मूल भावों की रक्षा का भी पूरा ध्यान रखा गया है। पद्य अधिकतर ब्रजभाषा के सवैयो में है जो पढ़ने में बहुत मधुर हैं। इन पद्यों में खटकनेवाली केवल दो बाते, कहीं कहीं मिलती है। पहली बात तो यह है कि ब्रजभाषा-साहित्य में स्वीकृत शब्दों के अतिरिक्त वे कुछ स्थलों पर ऐसे शब्द लाए है जो एक भूभाग तक ही (चाहे वह ब्रजमंडल के अतर्गत ही क्यों न हो) परिमित हैं। शिष्ट साहित्य में ब्रजमंडल के भीतर बोले जानेवाले सब शब्द नहीं ग्रहण किए गए हैं। ब्रजभाषा देश की सामान्य काव्यभाषा रही है। अतः काव्यो में उसके वे ही शब्द लिए गए हैं जो बहुत दूर तक बोले जाते हैं, और थोड़े बहुत सब स्थानों में समझ लिए जाते है। उदाहरण के लिये 'सिदौसी' शब्द लीजिए जो खास मथुरा-वृंदावन में बोला जाता है, पर साहित्य में नहीं मिलता। दूसरी बात यह कि, कहीं कहीं श्लोको का पूरा भाव लाने के प्रयत्न में भाषा दुरूह और अव्यवस्थित हो गई है।

मौलिक-नाटक––काशी निवासी पंडित् किशोरीलाल गोस्वामी ने प्रथम उत्थान के अंत में दो नाटक लिखे थे––'चौपट-चपेट' और 'मयक मंजरी'। इनमें से प्रथम तो एक प्रहसन था जिसमे चरित्रहीन और छलकपट से भरी स्त्रियों तथा लुच्चो-लफगों आदि के बीभत्स और अश्लील चित्र अंकित किए गए थे। दूसरा पाँच अंकों का नाटक था जो शृंगार रस की दृष्टि से सं॰ १९४८ में लिखा गया था। यह भी साहित्य में कोई विशेष स्थान न प्राप्त कर सका और लोक-विस्मृत हो गया। हिंदी के विख्यात कवि पं॰ अयोध्यासिंह उपाध्याय की प्रवृत्ति इस द्वित्तीय उत्थान के आरंभ में नाटक लिखने की ओर भी हुई थी और उन्होंने 'रुक्मिणी-परिणाय' और 'प्रद्युम्न-विजय व्यायोग' नाम के दो नाटक लिखे थे। ये दोनो नाटक उपाध्याय जी ने हाथ आजमाने के लिये लिखे थे। आगे उन्होंने इस ओर कोई प्रयत्न नहीं किया।

पंडित् ज्वालाप्रसाद मिश्र ने संस्कृत नाटकों के अनुवाद के अतिरिक्त 'सीता-वनवास' नाम का एक नाटक भी लिखा था जिसमे भवभूति के 'उत्तर रामचरित' की कुछ झलक थी। उनके भाई पंडित् बलदेवप्रसाद मिश्र ने