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गद्य-साहित्य का प्रसार

गोस्वामीजी के ऐतिहासिक उपन्यासो से भिन्न भिन्न समयों की सामाजिक और राजनीतिक अवस्था का अध्ययन और संस्कृति के स्वरूप का अनुसंधान नहीं सूचित होता। कहीं कहीं तो कालदोष तुरंत ध्यान में आ जाते है––जैसे वहाँ जहाँ अकबर के सामने हुक्के या पेचवान रखे जाने की बात कही गई हैं। पंडित किशोरीलाल गोस्वामी के कुछ उपन्यासों के नाम ये है––तारा, चपला, तरुण-तपस्विनी, रजिया बेगम, लीलावती, राजकुमारी, लवंगलता, हृदयहारिणी, हीराबाई, लखनऊ की कब्र, इत्यादि इत्यादि।

प्रसिद्ध कवि और गद्य लेखक पंडित् अयोध्यासिंहजी उपाध्याय ने भी दो उपन्यास ठेठ हिंदी में लिखे––'ठेठ हिंदी का ठाट' (सं॰ १९५६) और 'अधखिला फूल' (१९६४)। पर ये दोनों पुस्तकें भाषा के नमूने की दृष्टि से लिखी गई, औपन्यासिक कौशल की दृष्टि से नहीं। उनकी सबसे पहले लिखी पुस्तक "वेनिस का बाँका" में जैसे भाषा संस्कृतपन की सीमा पर पहुँची हुई थी वैसी ही इन दोनों पुस्तकों में ठेठपन की हद दिखाई देती है। इन तीनो पुस्तकों को सामने रखने पर पहला ख्याल यही पैदा होता है कि उपाध्यायजी क्लिष्ट, संस्कृतप्राय भाषा भी लिख सकते है और सरल से सरल ठेठ हिंदी भी। अधिकतर इसी भाषा-वैचित्र्य पर ख्याल जमकर रह जाता है। उपाध्यायजी के साथ पंडित् लज्जाराम मेहता का भी स्मरण आता है जो अखबार-नवीसी के बीच बीच में पुरानी हिंदू-मर्यादा, हिंदूधर्म और हिंदू पारिवारिक व्यवस्था की सुंदरता और समीचीनता दिखाने के लिये छोटे बड़े उपन्यास भी लिखा करते थे। उनके उपन्यासों में मुख्य ये हैं––'धूर्त रसिकलाल' (सं॰ १९५६), हिंदू गृहस्थ, आदर्श दंपति (१९६१), बिगड़े का सुधार (१९६४) और आदर्श हिंदू (१९७२) ये दोनों महाशय वास्तव में उपन्यासकार नहीं। उपाध्यायजी कवि हैं और मेहताजी पुराने अखबार-नवीस।

काव्य-कोटि में आनेवाले भावप्रधान उपन्यास, जिनमें भावों या मनोविकारों की प्रगल्भ और वेगवती व्यजना का लक्ष्य प्रधान हो––चरित्र-चित्रण या घटना वैचित्र्य का लक्ष्य नहीं––हिंदी में न देख, और बंगभाषा में काफी देख, बाबू ब्रजनंदनसहाय बी॰ ए॰ ने दो उपन्यास इस ढंग के प्रस्तुत किए––"सौंदर्योपासक" और "राधाकांत" (सं॰ १९६९)।