उपर्युक्त दृष्टि से यदि हम देखें तो इंशा की रानी केतकी की बड़ी कहानी न आधुनिक उपन्यास के अंतर्गत आएगी न राजा शिवप्रसाद का 'राजा भोज का सपना' या 'वीरसिंह का वृत्तांत' आधुनिक, छोटी कहानी के अंतर्गत।
अँगरेजी की मासिक पत्रिकाओं में जैसी छोटी छोटी आख्यायिकाएँ या कहानियाँ निकला करती हैं वैसी कहानियों की रचना 'गल्प' के नाम से बंगभाषा में चल पड़ी थी। ये कहानियाँ जीवन के बड़े मार्मिक और भाव-व्यंजक खंड-चित्रों के रूप में होती थीं। द्वितीय उत्थान की सारी प्रवृत्तियों के आभास लेकर प्रकट होनेवाली 'सरस्वती' पत्रिका में इस प्रकार की छोटी कहानियों के दर्शन होने लगे। 'सरस्वती' के प्रथम वर्ष (सं॰ १९५७) में ही पं॰ किशोरीलाल गोस्वामी की 'इंदुमती' नाम की कहानी छपी जो मौलिक जान पड़ती है। इसके उपरांत तो उसमें कहानियाँ बराबर निकलती रहीं पर वे अधिकतर बंगभाषा से अनूदित या छाया लेकर लिखी होती थीं। बंगभाषा से अनुवाद करनेवालो में इंडियन प्रेस के मैनेजर बा॰ गिरिजाकुमार घोष, जो हिंदी कहानियों में अपना नाम 'लाला पार्वतीनंदन' देते थे, विशेष उल्लेख योग्य हैं। उसके उपरांत 'बंगमहिला का स्थान है जो मिर्जापुर निवासी प्रतिष्ठित बंगाली सज्जन बा॰ रामप्रसन्न घोष की पुत्री और बा॰ पूर्णचंद्र की धर्मपत्नी थीं। उन्होंने बहुत सी कहानियों का बँगला से अनुवाद तो किया ही, हिंदी में कुछ मौलिक कहानियाँ भी लिखीं जिनमें से एक थी "दुलाईवाली" जो सं॰ १९६४ की 'सरस्वती' (भाग ८, संख्या ५) में प्रकाशित हुई।
कहानियों का आरंभ कहाँ से मानना चाहिए, यह देखने के लिये 'सरस्वती', में प्रकाशित कुछ मौलिक कहानियों के नाम वर्षक्रम से नीचे दिए जाते हैं––
इंदुमती (किशोरीलाल गोस्वामी) | सं॰ १९५७ |
गुलबहार („ „) | सं॰ १९५९ |
प्लेग की चुड़ैल (मास्टर भगवानदास, मिरजापुर) | १९५९ |
ग्यारह वर्ष का समय (रामचंद्र शुक्ल) | १९६० |
पंडित और पंडितानी (गिरिजादत्त वाजपेयी) | १९६० |
दुलाईवाली (बंग-महिला) | १९६४ |