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हिंदी-साहित्य का इतिहास

इनमें से यदि मार्मिकता की दृष्टि से भाव-प्रधान कहानियों को चुने तो तीन मिलती है––'इंदुमती', 'ग्यारह वर्ष का समय' और 'दुलाईवाली'। यदि 'इंदुमती' किसी बँगला कहानी की छाया नहीं हैं, तो हिंदी की यह पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरांत 'ग्यारह वर्ष का समय', फिर 'दुलाईवाली' का नबंर आता हैं।

ऐसी कहानियों की ओर लोग बहुत आकर्षित हुए और वे इस काल के भीतर की प्रायः सब मासिक पत्रिकाओं में बीच-बीच में निकलती रहीं। सं॰ १९६८ में कल्पना और भावुकता के कोश बा॰ जयशंकर 'प्रसाद' की 'ग्राम' नाम की कहानी उनके मासिक पत्र, 'इंदु' में निकली। उसके उपरांत तो उन्होंने 'आकाशदीप', 'बिसाती', 'प्रतिध्वनि', 'स्वर्ग के खंडहर', 'चित्रमंदिर' इत्यादि अनेक कहानियाँ लिखीं जो तृतीय उत्थान के भीतर आती है। हास्यरस की कहानियाँ लिखनेवाले जी॰ पी॰ श्रीवास्तव की पहली कहानी भी 'इंदु' से सं॰ १९६८ में ही निकली थी। इसी समय के आस-पास आज-कल के प्रसिद्ध कहानी-लेखक पं॰ विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक' ने भी कहानी लिखना आरंभ किया। उनकी पहली कहानी 'रक्षा-बंधन' सन् १९१३ की 'सरस्वती' में छपी। सूर्यपुरा के राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह जी हिंदी के एक अत्यंत भावुक और भाषा की शक्तियों पर अद्भुत अधिकार रखने वाले पुराने लेखक हैं। उनकी एक अत्यंत भावुकतापूर्ण कहानी "कानों में कँगना" सं॰ १९७० में 'इंदु' में निकली थी। उसके पीछे अपने 'बिजली' आदि कुछ और सुंदर कहानियाँ भी लिखीं। पं॰ ज्वालादत्त शर्मा ने सं॰ १९७१ से कहानी लिखना आरंभ किया और उनकी पहली कहानी सन् १९१४ की 'सरस्वती' में निकली। चतुरसेन शास्त्री भी उसी बर्ष कहानी लिखने की ओर झुके।

संस्कृत के प्रकाड प्रतिभाशाली विद्वान्, हिंदी के अनन्य आराधक श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी की अद्वितीय कहानी "उसने कहा था" सं॰ १९७२ अर्थात् सन् १९१५ की 'सरस्वती' में छपी थी। इसमें पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इसकी ऐसी है जैसी बराबर हुआ करती हैं पर उसके भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झाँक रहा हूँ––केवल झाँक रहा है, निर्लज्जता